Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ सार-संक्षेप) नहीं हैं। आत्मा रागादि का नाश करना चाहता है, बनाये रखना नहीं चाहता; साथ ही ज्ञान की वृद्धि चाहता है, उसका नाश नहीं चाहता। क्रोधादि भाव आते हैं-चले जाते है, स्थायी नहीं रहते तथा रुकते भी नहीं है, लेकिन ज्ञानभाव तो स्थायी भाव है, उसका कभी अभाव ही नहीं होता। जब-जब क्रोधादि आत्मा में पैदा होते हैं, उससमय भी ज्ञान उन क्रोधादि भावों से भिन्न उपस्थित रहकर साक्षीरूप से उनको जानता रहता है और उन क्रोधादि भावों (जिनको उनकी उत्पत्ति के काल में साक्षी रहकर परज्ञेयरूप में जान रहा था) का अभाव हो जाने पर भी अपनी स्मृति में ज्यों का त्यों वर्तमानवत् उपस्थित रखता है और वर्षों के अन्तराल के बाद भी जब चाहो, उस प्रसंग को आत्मा के ज्ञान में उपस्थित कर देता है। इससे आत्मा का ज्ञान स्वभाव ही स्थायी है और यह ही आत्मा का स्वभाव है, लेकिन क्रोधादि भाव स्थायी नहीं होने से स्वभाव नहीं हैं। अतः आत्मा का स्वभाव ज्ञान ही है - ऐसा निर्णय, श्रद्धा एवं अनुभव से भी सिद्ध होता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि जब हर एक वस्तु का अपने स्वभाव रूप परिणमन करना ही उस वस्तु का धर्म है, तब आत्मा का धर्म भी एक मात्र स्व-पर के ज्ञातारूप परिणमन करते रहना ही तो है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण भगवान अरहंत की आत्मा है, जो निरंतर ज्ञायकरूप ही परिणमती है, अन्य क्रोधादि कोई प्रकार के परिणमनों का अंश भी उनमें नहीं रहता। पं. दौलतरामजी ने कहा भी "सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रस लीन। सो जिनेन्द्र जयवंत नित,अरि रज रहस विहीन " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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