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सुखी
( आत्मा की
(सुखी होने का उपाय
श्री
होने का उपाय
भाग-2
अन्तर्दशा एवं स्व तत्त्व निर्णय)
मंगलाचरण
तज्जयति पंरज्योतिः समं समस्तैरनंत पर्यायै । दर्पण तल इव सकला प्रतिफलाति पदार्थ मालिका यत्रः
दुःख, सुख तथा धर्म की परिभाषा
पूर्वबद्ध पापकर्म के उदय में अच्छे नहीं लगनेवाले प्रतिकूल संयोग मिलते हैं। उनके मिलने पर आत्मा कर्त्तव्यबुद्धि के अभिप्राय के कारण अपने स्वभाव को भूलकर, वे मुझे अनिष्ट हैं, इनको मैं दूर कर सकता हूँ, ऐसी मान्यता के सद्भाव में द्वेषभावरूप तीव्र आकुलित होता है। इसीप्रकार उपरोक्त उपरोक्त मान्यता के सद्भाव में अच्छे लगनेवाले संयोगों के चले जाने पर इष्टवियोगजनित द्वेषरूप में तीव्र आकुलित होता है। इसी रागद्वेष रूप आकुलता को संसारी प्राणी दुःख कहते हैं।
पूर्वबद्ध पुण्यकर्म के उदय में इस जीव को अच्छे लगनेवाले अनुकूल संयोग मिलते हैं। उनके मिलने पर आत्मा कर्त्तव्यबुद्धि के अभिप्राय के कारण अपने स्वभाव को भूलकर, वे मेरे हैं, मैंने इनको प्राप्त किया है, मैं इनके
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