Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 2
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ 3) (सुखी होने का उपाय आत्मा के कर, क्रमशः आत्मा में आकुलता की तथा निराकुल स्वभाविक क्रमशः बढ़ते जानी, सम्यक्चारित्ररूपी धर्म है। इसी को आगम में पांचवें से चौदह गुणस्थानों के माध्यम से समझाया है। उत्पत्ति घटती मानी आनंद की अनुभूति को परम उपादेय वह आत्मा इस प्रकार उपर्युक्त दुःख, सुख तथा धर्म की परिभाषा संक्षेप में प्रस्तुत की गई है। इस ही का विस्तृत विवेचन समस्त जिनवाणी अर्थात् सारा द्वादशांग में है। हमको भी अपनी आत्मा में उठनेवाले रागद्वेष, सुखदुख रूपी भावों का अभाव करके, अपने आत्मा में उपरोक्त धर्म को प्रगट करने के लिए धर्म के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से समझना है। धर्म का सरल मार्ग प्राप्त करने की जिज्ञासा हमारी एक गंभीर समस्या है कि हमारा जीवन तो थोड़ा, बुद्धि कम और द्वादशांग अथाह समुद्र है, अतः हमारा कल्याण कैसे हो ? पंडित भूधरदासजी ने जैनशतक में शंका उत्पन्न करके, उसका समाधान भी दिया है v - जीवन अलप, आयु-बुद्धि-बल-हीन, जामें, आगम अगाध सिंधु कैसे ताहि डाकि है? द्वादशांग मूल एक अनुभव अपूर्व कला, भवदापहारी घनसार की सलाक है ॥ यही एक सीख लीजे, यही को अभ्यास कीजे, याही को रस पीजे, ऐसी वीर जिन वाक् है । इतनों ही सार यही आतम को हितकार, यही लो मदार और आगे दूकढ़ाक है ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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