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सुखी होने का उपाय) रखने-भोगने का अधिकारी हैं, इनके भोगने में इनसे मुझे सुख मिलता है-ऐसी मान्यता के सद्भाव में राग से आकुलित होता है। इसीप्रकार अनिष्ट संयोग मिल जाने पर भी पुण्य के योग से उनका अभाव अथवा कमी हो जाने पर, इनको मैंने दूर किया, ये सुख के साधन हैं, इसलिये मैंने अभाव नहीं होने दिया आदि ऐसी मिथ्या मान्यता के सद्भाव में राग से आकुलित होता है। इसी रागद्वेष रूपी आकुलता को संसारी प्राणी सुख कहते हैं।
उपर्युक्त दोनों प्रकार से होनेवाली आकुलता का मूल कारण, . अपने आत्मा से भिन्न अन्य पदार्थों-जैसे शरीर आदि में मैंपना, अहंपना तथा उनके परिणमनों (पर्यायों) में कर्ताबुद्धि अर्थात् मैं परद्रव्यों के परिणमनों का कर्ता हूँ, ऐसी मिथ्या मान्यता है। उस मिथ्या मान्यता का अभाव; अपने आत्मा का सच्चा स्वरूप समझकर अपने आत्मा में अहंपना (मैपना) स्थापन कर, अन्य परिणमनों का अपने आपको अकर्ता अर्थात् कर्ता नहीं मानकर, मात्र साक्षी अर्थात् ज्ञाता मानकर श्रद्धा में उन सबसे अत्यन्त उपेक्षित हो जाने से अपना उपयोग स्व के सन्मुख दौड़ाने का उत्सुक होकर कार्यशील हो जाता है, यह आत्मा का परम कल्याणकारी सबसे पहला सम्यग्दर्शनरूपी धर्म है। ऐसा धर्म आत्मा में प्रगट होते ही निर्भार हो जाने से उपरोक्त दोनों प्रकार की दुःख तथा सुख रूपी आकुलता का आंशिक अभाव होकर, आत्मा में आंशिक स्वाभाविक शांति प्रगट होती है। उसी को शास्त्रीय भाषा में चतुर्थ गुणस्थान की उत्पत्ति तथा अनंतानुबंधी कषाय के अभाव स्वरूप आत्मा में निराकुल सुख की प्रगटता कही गई है। उसी ही ज्ञायक अकर्ता स्वभावी निर्भार आत्मा में परके प्रति उपेक्षा बढ़ जाने से अपना उपयोग स्वमें रुककर अर्थात् स्थिरता प्राप्त
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