________________
XII ]
( सार-संक्षेप
उपर्युक्त सभी ऊहापोहों के माध्यम से जीव द्रव्य का स्वभाव ज्ञान ही है ऐसा सिद्ध होता है। अतः मैं भी तो उन अनंत जीव द्रव्यों में से ही तो एक जीव हूँ, अतः मेरा भी स्वभाव तो एकमात्र जानना ही है, क्रोधादि नहीं है।
उक्त निर्णय के पश्चात् उस पात्र आत्मार्थी जीव को यह जानने की जिज्ञासा सहज उत्पन्न होती है कि आत्मा मात्र ज्ञायक ही कैसे है? तथा ये क्रोधादि भाव उत्पन्न ही कैसे होते हैं? और इनका अभाव भी कैसे किया जावे? उक्त जिज्ञासा की पूर्ति इस पुस्तक (भाग - २) में की गई है। जिसका विस्तार विषयसूची से ज्ञात करें।
अतः आत्मार्थी जीव को परद्रव्यों पर से दृष्टि हटाकर उपयोग को एकाग्र कर मात्र अपने अन्दर होनेवाले गुण और पर्यायों के स्वरूप एवं कार्यों को भले प्रकार समझ कर अपने में ही अहंबुद्धि प्रगट कर उपयोग को स्व में एकाग्र कर तन्मय हो जाना चाहिये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org