Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स
श्री स्थानाङ्ग सूत्रम्
(शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित)
उत्थानिका - भूतकाल में अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं। भविष्य में फिर अनन्त तीर्थंकर होवेंगे और वर्तमान में संख्यात तीर्थंकर विद्यमान हैं। अतएव जैन धर्म अनादिकाल से है, इसीलिए इसे सनातन (सदातन-अनादिकालीन) धर्म कहते हैं। - केवलज्ञान हो जाने के बाद सभी तीर्थंकर भगवन्त अर्थ रूप से प्रवचन फरमाते हैं, वह प्रवचन द्वादशांग वाणी रूप होता है। तीर्थंकर भगवन्तों की उस द्वादशांग वाणी को गणधर सूत्र रूप से गूंथन करते हैं। द्वादशाङ्ग (बारह अङ्गों) के नाम इस प्रकार हैं - ... १. आचाराङ्ग २. सूयगडाङ्ग ३. ठाणांग (स्थानांग) ४. समवायाङ्ग ५. विवाहपण्णत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती) ६. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ७. उपासकदशाङ्ग ८. अंतगडदशाङ्ग ९. अनुत्तरौपपातिक दशा १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक और १२. दृष्टिवाद।
जिस प्रकार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय-ये पांच अस्तिकाय कभी नहीं थे, कभी नहीं है और कभी नहीं रहेंगे ऐसी बात नहीं किन्तु ये पांच अस्तिकाय भूतकाल में थे, वर्तमान में है और भविष्यत् काल में भी रहेंगे। इसी प्रकार यह द्वादशांग वाणी कभी नहीं थी, कभी नहीं है और कभी नहीं रहेगी, ऐसी बात नहीं किन्तु भूतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्यत्काल में रहेगी। अतएव यह मेरु पर्वत के समान ध्रुव है, लोक के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना आदि देते रहने पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण अक्षय है। गंगा सिन्धु नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है, जम्बूद्वीप लवण समुद्र आदि द्वीप समुद्रों के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है।
यह द्वादशांग वाणी गणि-पिटक के समान है अर्थात् गुणों के गण एवं साधुओं के गण को
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