________________
तीस वर्ष और तीन वर्ष :
९
क्र०
*
उनके उपदेश मौलिक रूप से यहूदी धर्म के समान ही थे, पर उन्होंने उनमें युगानुरूप परिवर्तन किया। तत्कालीन परिस्थिति को देखते हुए उन्होंने अपने उपदेश नीति-कथाओं, पौराणिक कथाओं, रूपक, उपमा तथा अन्य अलंकारों की भाषा में परोक्षतः दिये, जैसा भारत के 'पंचतंत्र' की कथाओं में पाया जाता है। इनके शिष्यों को भी उनके रहस्यों को स्पष्ट करने की आज्ञा नहीं थी। रूपकमय भाषा सदैव रहस्यमय एवं भ्रामक होती है। इसके कारण ही ईसाई धर्म के सभी सिद्धांतों का सही रूप में एवं सरलता से ज्ञान और प्रचार नहीं हो सका। यह धर्म भी परम्परावाद में जकड़ गया। सारणी-२ में कुछ शब्द और उनके रहस्यात्मक अर्थ दिये जा रहे हैं जो सामान्य बाइबिल पाठकों के लिये उपयोगी होंगे। इनके उपदेशों में ४० दृष्टांत भी पाये जाते हैं।
सारणी - २ - बाइबिल में रूपक और उनका अर्थ रूपक शब्द अर्थ स्वर्ग
पाप से मुक्ति, जगत् का उच्चतर भाग सांप
आनन्द, असुर मेमना
सरलता की मूर्ति, नव शिशु मुकुट
अतिशांति ५. मृत
आध्यात्मिकत: मृत, भौतिकत: जीवित आंख
प्रकाश टिड्डी/शहद
मधुर आध्यात्मिक पथ ऋण
पाप या दोष सांप का विष इच्छायें १०.
इच्छायें ११. मृत्यु
आत्मा की निंदा, दण्ड १२. ईश्वर को देखो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश १३. हवा में पक्षी देव-दूत
प्रज्ञात्मक अग्नि त्याग, परिग्रह छोड़क, संन्यास १५. अंतिम दिन
जगत् का अंत १६. मांस
सद्विश्वास, निष्पाप आत्मा
-
७ ;
शैतान
१४.