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तीस वर्ष और तीन वर्ष :
पास सामने आया। इनकी प्राकृत एवं संस्कृत में व्याख्यायें लिखी गईं और बीसवीं सदी में इनका हिन्दी में अनुवाद हुआ। इनका अंग्रेजी अनुवाद भी अब उपलब्ध है, पर ईसाई साहित्य की तुलना में यह अल्प प्रसारित ही है ।
महात्मा जीसस
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महात्मा जीसस अब्राहम, मूसा, ईसाई या जैरामिक आदि संतों की परम्परा के अन्तिम धर्म - युगानुकूलन के प्रतिनिधि थे। इनके पूर्ववर्तियों ने भविष्य में ईश्वरपुत्र के विषय में भविष्यवाणियां की थीं। यद्यपि जन्म के समय इनका नाम जीसस था, पर बाद में इन्हें अनेक नामों से पुकारा गया- जीवित और मृत व्यक्तियों के न्यायाधीश, ईश्वर-पुत्र, जगत्-प्रकाश, जीवन के राजकुमार, भेड़ों के गड़रिया, इसरायल का (आध्यात्मिक) राजा, पवित्र आत्मा और यहाँ तक कि ईश्वर आदि। इनकी जन्मकथा एक देवदूत के माध्यम से यहूदी कन्या कुमारी मेरी से प्रारम्भ होती है। अपने परिवार के साथ अपने देश जाते समय इनका जन्म बेटलहम की एक घुड़साल में हुआ। उस समय उस ओर के देशों में राजतंत्र था तथा सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति शोषणशोषक जैसी थी। इनके पिता मध्यम राजवर्ग के विश्वकर्मा थे, जिन्होंने उसे घरेलू धंधा सिखाया एवं यहूदी धर्म के विषय में आरम्भिक शिक्षण दिया। बाल्यकाल में ही महात्मा जीसस यहूदी धर्म-सभा में जाने लगे और छ: वर्ष की उम्र से वे स्थानीय धार्मिक स्कूल में पढ़ने लगे। १२ वर्ष की उम्र में वे यरुशलम गये और वहां के उच्चतर धर्म-स्कूल के शिक्षकों से अध्ययन किया और चर्चायें की। उनके सगे या सौतेले चार भाई और कुछ बहिने थीं अपने प्रारंभिक जीवन में वे परिवार के अनुशासन में विकसित हुए। वे अपने से अनेक बार यरुशलम (यहूदियों का मुख्य केन्द्र) गये। एक बार उन्होंने वहां के मंदिर-परिसर में विद्यमान पशु एवं विनिमय व्यापार को परिसर से बाहर कराया। इससे लोग उन्हें जानने लगे। उनके उपदेशों में नवीनता थी, इससे कुछ लोग उनसे अप्रसन्नता भी व्यक्त करते थे। ऐसे अवसरों पर वे प्रायः अपनी ऋद्धि शक्ति का उपयोग कर पर्वतीय उपत्यकाओं में या अन्यत्र चले जाते थे।
उनकी १२- ३० वर्ष के जीवन की कथा अनुमेय है । कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वे इन दिनों ईरान- ईराक आदि क्षेत्रों में अपने कुल-वंशियों की खोज में गये हों और उनसे अपने जीवन के कार्य की योजना पर चर्चा की हो। यह भी सम्भव है कि वे भारत के समान पूर्वी देशों में साधना और ज्ञान प्राप्त करते रहे होंगे। ईसा के जन्म से सदियों पूर्व ईरान, यूनान और अन्य देशों में महावीर और बुद्ध के शिष्य पहुँच चुके थे और उनका वहाँ अच्छा प्रभाव था। संभव है, इसी से वे आकृष्ट हुए हों और पूर्वी देशों में गये हों। उनके उपदेशों में पूर्वी संस्कृति के प्रभाव को स्पष्ट देखा जा सकता है।