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९ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७
विध सम्प्रदायों में समता बोध एवं सहिष्णुता के विकास का प्रयास किया । सम्भव है उनके इस प्रकार के प्रयास में धर्मसहिष्णु एवं समन्वयवादी गुप्त-शासकों का भी सहयोग मिला हो । यद्यपि इस प्रकार के मत प्रतिष्ठापन के लिये पुष्ट प्रमाणों की अपेक्षा
विक्रम की आठवीं से सत्रहवीं शती तक का समय “प्रमाणस्थापन काल" के रूप में अभिहित किया जाता है ।५३ इस युग में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के प्रमुख आचार्यों ने अनेकान्त एवं स्याद्वाद पर अनेक विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की । आचार्य अकलङ्कदेव ने समन्तभद्र की आप्तमीमांसा पर टीका लिखी और लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की । इन्होंने अपने ग्रन्थ लघीयस्त्रय के प्रथम श्लोक में ही तीर्थङ्करों की स्याद्वादी के रूप में श्रद्धापूरित स्तुति कर स्याद्वाद को जैन दर्शन का अभिन्न अङ्ग बनाने की सफल चेष्टा की ।५४ ___ इसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय के अन्य आचार्यों-वादीभसिंह (विक्रम की आठवीं शती), विद्यानन्दि (वि.९वीं शती), देवसेन वसुनन्दि (१०-११वीं शती), सोमदेव (वि.११वीं शती) आदि द्वारा भी क्रमश: "स्याद्वादसिद्धि", "अष्टसहस्त्री", "नयचक्र', "आप्तमीमांसा वृत्ति" "स्याद्वादोपनिषद्” जैसे अतिविशिष्ट ग्रन्थों की रचना की गई। विक्रम की ११-१२ वीं शती में हुए परमारकालीन जैनाचार्य प्रभाचन्द्र ने
प्रमेयकमलमार्तण्ड” (परीक्षामुख टीका) एवं "न्यायकुमुदचन्द्र'' (लघीयस्त्रय टीका) जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन कर दार्शनिक धरातल पर स्याद्वाद एवं अनेकान्तवाद को प्रतिष्ठित करने का सफल उद्योग किया । उनके इस प्रकार के प्रयत्न को भी परिस्थितिजन्य कहा जा सकता है । सम्प्रदाय में बढ़ रही भेद की प्रवृत्ति पर, स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रति लोगों की आस्था जगाकर अथवा “अनन्तधर्मात्मकं वस्तु' का स्मरण कराकर, अंकुश लगाने का यह महत्त्वपूर्ण प्रयत्न हो सकता है । दिगम्बर सम्प्रदाय के ही एक. अत्यन्त प्रतिभाशाली आचार्य विमलदास ने विचारों के समन्वय की महत्त्वपूर्ण चेष्टा की । उनकी रचना "सप्तभङ्गीतंरगिणी" नव्य शैली की अकेली एवं अनूठी प्रस्तुति है ।५५
इस अवधि में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनेक युग-प्रधान आचार्यों ने भी अनेकान्त एवं “स्याद्वाद" से सम्बद्ध अनेक विशिष्ट ग्रन्थों की रचना का उपयोगी प्रयास किया । इस दृष्टि से हरिभद्र (वि० ८वीं शती) के “अनेकान्तजयपताका" एवं "स्याद्वादकुचोद्यपरिहार"; वादिदेवसूरि (१२वीं शती) के "स्याद्वादरत्नाकर'; रत्नप्रभसूरि (१३वीं शती) के स्याद्वादरत्नाकरावतारिका"; मल्लिषेण (१४वीं शती) के "स्याद्वादमञ्जरी' जैसे ग्रन्थों का अपना विशिष्ट स्थान है । ये ग्रन्थ अपने विषय के महत्त्वपूर्ण सार्थक प्रयास हैं।
इसके अनन्तर १८वीं शती में यशोविजय ने “स्याद्वादमञ्जरी" पर "स्याद्वादमंजूषा"
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