Book Title: Sramana 1997 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ परिणाम है, जिसे महावीर ने अपनी चिन्तन-परक अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिये उपयोगी समझा, उसे "स्यात्" पद के प्रयोग से वस्तु की बहुधर्मिता का संप्रकाशक, सत्यसापेक्ष, अधिकाधिक वस्तुपरक एवं व्यावहारिक बना दिया। क्रमश: उन्हें “चतुर्भङ्गों" की सीमा का भी भान हुआ, उन्हें लगा कि कुछ ऐसी अनुभूतियाँ भी हैं जिनकी अभिव्यक्ति इन चतुर्भङ्गों' के प्रयोग से सम्भव नहीं, अत: उन्होंने "चतुर्भङ्ग' में "अस्ति च अवक्तव्यं च” “नास्ति च अवक्तव्यं च, “अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यं च" इन तीन नवीन नयों का समावेश कर उसे "सप्तभङ्गी" बना दिया । इस प्रकार जहां बुद्ध का विभज्यवादी सिद्धान्त अपने मूल रूप में यथावत् रहा, सञ्जय बेलट्ठिपुत्त का चतुर्भङ्ग'' संशयवाद का उद्भावक बना, एवं महावीर स्वामी का विभज्यवादी सिद्धान्त "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य' की अनुभूतिजन्य “अनेकान्त' के माध्यम से विकसित होता हुआ “स्याद्वाद'' के रूप में, वस्तु के अभिप्रेत धर्म के साथ ही सन्निहित अन्य धर्म का भी सूचक, सत्यपरक अभिव्यक्ति का समुचित माध्यम बन गया । जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, जैनियों की स्याद्वादी अवधारणा महावीर के “अहिंसा' एवं "सूनृत सत्य' विषयक सिद्धान्त के अनुकूल थी। दूसरे की भावना को कर्म से ठेस पहुंचाने की तो बात ही अलग, मन एवं वाणी से भी कष्ट देना दोषप्रद था । उनके युग में धार्मिक-दार्शनिक सिद्धान्तों को लेकर प्राय: विविध सम्प्रदाय के 'लोग परस्पर वाद-विवाद करते रहते; अपने पक्ष का येन-केन प्रकारेण मण्डन तथा दूसरे के सिद्धान्तों का खण्डन ही विविध सम्प्रदायों का लक्ष्य था । ऐसी परिस्थिति में सम्प्रदायों में परस्पर सौमनस्य एवं सद्भाव स्थापित करने तथा स्वयं के संघ में सम्मिलित विविध मत-बुद्धि के अनुयायियों में सौहार्द्र-स्थापन के लिये महावीर स्वामी ने इस स्याद्वाद सिद्धान्त का अस्त्र के रूप में प्रयोग किया और जिसके माध्यम से उन्हें धार्मिक एवं सामाजिक सुख-स्थापन में बल मिला । महावीर के इस स्याद्वाद सिद्धान्त की समय-समय पर युगसापेक्ष व्याख्या और पुनर्व्याख्या हुई, बहुविध वृद्धि एवं समृद्धि हुई। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट है कि महावीर स्वामी के बाद जैन धर्म का इतिहास बहुत कुछ जैन संघ एवं दर्शन का इतिहास है। मौर्य शासक चन्द्रगुप्त जैन धर्मावलम्बी था । उसके समय में आयोजित संगीति से जैन धर्म संघ में अनेक मानकों की स्थापना हुई, दिगम्बर एवं श्वेताम्बर इन दो सम्प्रदायों में जैन संघ का विभाजन हुआ । इन दोनों सम्प्रदायों ने महावीर स्वामी की शिक्षाओं की समसामयिक व्याख्या का प्रयास किया; स्वयं जैन सम्प्रदाय में हो रहे उपविभाजन से समन्वयी वृत्ति की वृद्धि की ओर आकर्षण बढ़ा यद्यपि अशोक बौद्ध था, परन्तु सम्भव है उसके “समवायो एव साधुकिति अत्रमत्रस धर्म सुणारू च सुसुंसेर च"४९ जैसे उद्घोष से जैनियों में सद्भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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