Book Title: Sramana 1997 07 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 8
________________ ५ : श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९७ सिद्धान्तों को लेकर पृथक्-पृथक् समुदायों एवं सम्प्रदायों में बँटे लोगों २८ का संघी, गणि, गणाचार्य के रूप में अपना अलग-अलग नेता होता है। इन नेताओं में अपने मत के प्रचार-प्रसार के निमित्त लोगों को अपनी बुद्धि एवं चिन्तन से प्रभावित कर अपना अनुयायी बनाने की होड़ दिखाई देती है। इस प्रकार के प्रयास में यदा-कदा कलह के वातावरण का भी प्रसङ्ग मिलता है । २९ इन नेताओं का अपने-अपने सिद्धान्तों के साथ उल्लेख मिलता है, जिनमें बुद्ध, मंक्खलि गोशाल, सञ्जय बेलट्ठिपुत्त, पूरण कस्सप, पकुधकच्चायन, अजित केशकम्बलिन्, निगण्ठनाथपुत्त का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है ।" बुद्ध अपने विभज्यवादी सिद्धान्त के लिये प्रसिद्ध थे । उन्होंने जड़-चेतन की व्यावहारिक धरातल पर तर्कसम्मत व्याख्या करते हुए, लोकपरलोक, आत्मा-परमात्मा आदि को अव्याकृत कहा । " मंक्खलि गोशाल नियतिवादी तथा सञ्जय बेलट्ठिपुत्त अज्ञानवादी सिद्धान्त के लिये प्रख्यात थे। पूरण कस्सप एवं पकुधकच्चायन दोनों अक्रियावादी थे, इसके बावजूद इन दोनों के सिद्धान्तों में किञ्चित् भेद लक्षित होता है । ३२ अजित केशकम्बलिन् की उच्छेदवादी के रूप में प्रतिष्ठा थी । ३३ तत्त्वों की व्यवहार-सम्मत युगपरक व्याख्या करने वाले इस युग में प्रत्येक प्रबुद्ध चिन्तक द्रव्य, लोक-परलोक आदि के प्रति अपनी अनूभूतिपरक व्याख्या को अधिकाधिक सत्यपरक बनाने के लिये “सत्”, “असत्”, “अनुभय" का यथावश्यक प्रयोग करता दिखाई देता है । गौतम बुद्ध के उक्त “विभज्यवाद" एवं "अव्याकृत" से इसका स्पष्ट संकेत मिलता है । सञ्जय बेलट्ठिपुत्त के "चतुर्भङ्ग" को इसके प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । बुद्ध जहाँ लोक-परलोक आदि से सम्बद्ध प्रश्नों को " अव्याकृत” कह कर शालीनतापूर्वक टाल देते हैं और उसे समस्याओं के समाधान के लिये अनुपयोगी बताते हैं, वहीं सञ्जय बेलट्ठिपुत्त फक्कड़ाना अंदाज में अपनी अज्ञता प्रकट करना ही अधिक उचित समझते हैं । ३४ जैन ग्रन्थों में बुद्ध के इस प्रकार के वक्तव्य पर यत्र-तत्र आक्षेप किया गया है और सञ्जय बेलट्ठिपुत्त की अन्धे के रूप में भर्त्सना की गई है । ३५ अभिव्यक्ति कथन के बारे में महावीर स्वामी का मत इन दोनों की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक लगता है । वे जड़-चेतनादि के संदर्भ में अनेकान्त गर्भित " स्याद्वाद" का सहारा लेते हैं । उनकी दृष्टि में द्रव्यों के संघात से बने जगत् एवं जागतिक तत्वों की अपनी अलग-अलग स्वतन्त्र विशेषतायें हैं; उनमें विविध धर्मों का समावेश होता है; किन्तु व्यक्ति के ज्ञान की अपनी सीमा और अपेक्षा होती है । किसी सामान्य व्यक्ति के लिये किसी वस्तु के धर्मों का सम्पूर्ण ज्ञान और एक साथ उनकी * समग्र अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है । यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अनुभूति एवं तज्जनित. अभिव्यक्ति सत्य; किन्तु अपेक्षा भेद से एकाङ्गी होती है । अतः उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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