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परिवार की ओर से सामुदायिक पौष दशमी के १७०० अट्ठम तप की आराधना कराकर पूज्य तपस्वी मुनिश्री जिनसेनविजयजी महाराज के साथ में भी गिरिराज के अभिषेक-प्रारंभ पर पालीताणा पहुँचा था । उस समय 'सौधर्म निवास' धर्मशाला में पूज्य मुनिश्री कुलचन्द्रविजयजी गणिवर्य के सान्निध्य में नैनमलजी पिंडवाड़ा वालों की ओर से गिरिराज की 'नवाणुयात्रा' चल रही थी ।
एक बार पूज्य गणिवर्य श्री मिलने पर उन्होंने बात ही बात में मुझे " श्राद्धविधि ग्रन्थ' का हिन्दी भावानुवाद तैयार करने की सूचना की ।
पूज्य गणिवर्य श्री की इस प्रेरणा को प्राप्त कर परमपूज्य वात्सल्यनिधि आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रद्योतनसूरीश्वरजी महाराज साहब के पुनीत शुभाशीर्वाद से प्रायः पौष सुदी १३ के शुभ दिन मैंने इस महान् ग्रन्थ के हिन्दी भावानुवाद का कार्य प्रारम्भ किया ।
उस समय पालीताणा में लगभग तीन मास की स्थिरता दरम्यान मेरी भी 'नवाणुयात्रा' चालू होने से यद्यपि समय कम ही मिल पाता था, फिर भी जितना समय मिल पाता, उस समय में इस अनुवाद कार्य को मैं आगे बढ़ाता रहा। विहार आदि में भी इस कार्य को करता रहा । तत्पश्चात् उदयपुर चातुर्मास दरम्यान परम पूज्य वात्सल्यवारिधि जिनशासन के अजोड़ प्रभावक सुविशाल गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा की सतत कृपामयी अमीदृष्टि, मेरे संयमजीवन के सुकानी अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव पूज्यपाद पंन्यासप्रवरश्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्यश्री की कृपामयी दिव्य वृष्टि, परम पूज्य सौजन्यमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रद्योतनसूरीश्वरजी म.सा. के शुभाशीर्वाद एवं परम पूज्य वात्सल्यमूर्ति पंन्यासप्रवर श्री वज्रसेनविजयजी गणिवर्यश्री की सत्प्रेरणा आदि के पुण्य प्रभाव से ही इस ग्रन्थ की मुख्य दो कथाओं को छोड़कर शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ का अनुवाद का शु. ८, २०४८ को पूर्ण करने में सक्षम बना था । तत्पश्चात् शेष दो कथाओं का अनुवाद भी उदयपुर से हालार की ओर विहार दरम्यान पूरा किया था ।
इस अनुवाद दरम्यान कुछ विषम स्थलों का अनुवाद छोड़ दिया था। उसके बाद इस अनुवाद के परिमार्जन हेतु मैंने यह सारी सामग्री विद्वद्वर्य मुनिश्री यशोरत्नविजयजी महाराज के पास भिजवा दी । उन्होंने पर्याप्त परिश्रमपूर्वक इस अनुवाद में रही क्षतिपूर्ति की ।
वे लिखते हैं कि इस अनुवाद के संशोधन आदि कार्य में परम पूज्य मेवाड़देशोद्धारक आचार्यदेव श्रीमद् विजय जितेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा., पूज्य मुनिश्री पुण्यरत्नविजयजी म.सा. एवं मुनिश्री धर्मरत्नविजयजी म. का भी काफी सहयोग रहा है ।
इस प्रकार इस भगीरथ कार्य में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सहयोग देने वाले सभी का मैं अत्यन्त आभार मानता हूँ । ग्रन्थ के अनुवाद के मुद्रण आदि कार्य में डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी का भी जो सराहनीय सहयोग रहा, उसे भी मैं कैसे भूल सकता हूँ ?
इस भावानुवाद के पठन-पठन द्वारा कोई एक भी श्रावक अपने श्रावक-जीवन के कर्तव्यपालन सुद्रढ़ बनकर संयम के लिए उत्सुक बनकर मोक्षमार्ग में आगे कदम उठायेगा तो मैं तो अपना समस्त प्रयास सफल समझंगा ।
में
अन्त में, मतिमन्दतादि दोष के कारण जिनाज्ञा एवं ग्रन्थकार के आशय के विरुद्ध कुछ भी लिखने में आया हो तो उसके लिए त्रिविध- त्रिविध मिच्छामि दुक्कडम् ।
पन्नारुपा यात्रिक गृह, पालीताणा,
चैत्र पूर्णिमा, २०४९
निवेदक
अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यासप्रवर
श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य पादपद्मरेणु
मुनि रत्नसेनविजय
(प्रथम आवृत्ति में से साभार)