Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 12
________________ स्पष्ट स्वरूप हमें देखने, जानने व समझने को मिलता है । तत्पश्चात् अनेक पूर्वाचार्य महर्षियों ने भी श्रावक धर्म पर अनेक ग्रन्थों की रचना की है । प्रस्तुत ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार प्रस्तुत "श्राद्धविधि' ग्रन्थ के कर्ता तपागच्छीय श्रीमद् रत्नशेखरसूरीश्वरजी महाराज हैं। उनके जन्मस्थल, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में कुछ भी उल्लेख कहीं से भी नहीं मिले हैं। अतः उपा धर्मसागरजी कृत तपागच्छ पट्टावली से प्राप्त जानकारी से ही सन्तोष मानना पड़ेगा । उनका जन्म वि. सं. १४५७ में हुआ था । उनकी दीक्षा सं. १४६३ में हुई थी । २६ वर्ष की लघुवय में उन्हें पण्डितपद, ३६ वर्ष की उम्र में उपाध्याय पद तथा ४५ वर्ष की वय में उन्हें आचार्यपद प्रदान किया गया था । स्तम्भनतीर्थ (खम्भात) में बाम्बी नाम के भट्ट ने उन्हें बाल सरस्वती का बिरुद प्रदान किया था । उन्होंने बेदरपुर (दक्षिण) में ब्राह्मण भट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया था । उनके शुभ सान्निध्य में जिनमन्दिर प्रतिष्ठा आदि अनेक शासन प्रभावक कार्य सम्पन्न हुए थे । वि.सं. १५१७ पौष वद-६ के दिन उनका कालधर्म हुआ था । प्रस्तुत "श्राद्धविधिप्रकरण" ग्रन्थ के रचयिता पूज्य रत्नशेखरसूरिजी महाराज प्रकाण्ड विद्वान् एवं प्रतिभासम्पन्न थे । उन्होंने "श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र" पर अर्थदीपिका नामक टीका तथा 'आचारप्रदीप'' नामक ग्रन्थ की भी रचना की है । ग्रन्थकार महर्षि ने प्रस्तुत ग्रन्थ पर श्राद्धविधि कौमुदी'' नामक अतिविस्तृत टीका की रचना वि.सं. १५०६ में की हैं। यह टीका ६७६१ श्लोक प्रमाण है । मूल ग्रन्थ की रचना प्राकृत भाषा में है और उस पर विस्तृत टीका संस्कृत भाषा में है । इस ग्रन्थ में उन्होंने श्रावक जीवन का बहुत ही सुन्दर एवं विशद वर्णन किया है । प्रारम्भ में श्रावक के स्वरूप का वर्णन करने के बाद श्रावक के दिनकृत्य, रात्रिकृत्य, पर्वकृत्य, चातुर्मासिक कृत्य, वार्षिक कृत्य और जन्मकृत्यों का बहुत ही चित्ताह्लादक वर्णन किया है । प्रसंगानुसार उन्होंने अनेक प्रश्नों का अनेक शास्त्रों के साक्षीपाठ देकर युक्तिसंगत समाधान किया है । श्रावकजीवन के प्रत्येक अंग-भोजन, व्यापार, लग्न, पारिवारिक जवाबदारी एवं चतुर्विध संघ के प्रति उत्तरदायित्व आदि का इतना विशद् व स्पष्ट वर्णन हमें अन्य ग्रन्थों में देखने को कम मिलता. है । कई बातों को उन्होंने अनेक प्राचीन एवं तत्कालीन द्रष्टान्तों के माध्यम से भी समझाने का प्रयास किया है । जिनागम आदि पंचांगी तथा पूर्वाचार्यकृत लगभग ७५ ग्रन्थों एवं वेद, पुराण, स्मृति आदि अनेक शास्त्रपाठ हमें उनकी बहुश्रुतता का परिचय कराते हैं । „ प्रस्तुत हिन्दी भावानुवाद वि.सं. २०४७ में जैनशासन की महान् प्रभावना करने वाले ऐतिहासिक तीन कार्य सम्पन्न हुए थेपौष सुद-६ के मंगल दिन रजनिभाई देवडी आदि द्वारा शत्रुंजय गिरिराज का भव्य अभिषेक । २) द्वि. वैशाख वद-६ के दिन अहमदाबाद में स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पुनित सान्निध्य में आयोजित अतुलभाई की दीक्षा का भव्य कार्यक्रम | ३) अत्यन्त समाधिपूर्वक देहत्याग करने वाले जिनशासन के महान् प्रभावक, सुविशाल गच्छाधिपति पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की आषाढ़ वद अमावस्या के दिन दर्शन बंगले से साबरमती तक की २२ कि.मी. की अन्तिम यात्रा । वि.सं. २०४६ में पिंडवाड़ा चातुर्मास की समाप्ति के बाद शंखेश्वर महातीर्थ में उत्तमभाई दोशी

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