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• उसके बाद स्थूलभद्रादि महापुरुषों के स्मरणपूर्वक अनित्यादि भावनाओं से भावित होकर सर्वजीवों के साथ क्षमापना कर अरिहन्तादि चार की शरणागति स्वीकार कर नमस्कार महामंत्र के चिन्तनपूर्वक शान्तनिद्रा करते थे ।
यह थी कुमारपाल महाराजा की दिनचर्या । आज के युग में भी धर्मप्रधान जीवन जीने के इच्छुक व्यक्ति मन को मजबूत कर अपनी समयसारिणी इस प्रकार बना सकते हैं. .
श्रावक-जीवन का प्रस्तावित दैनिक क्रम • प्रातः ४ बजे निद्रात्याग, १२ नवकार स्मरण, आत्मसंवेदन |.४.१५ से ६.०० बजे तक सामायिक एवं रात्रिप्रतिक्रमण |.६.०० से ७.०० बजे तक प्रातः पूजा, चैत्यवंदन, गुरुवन्दन | .७.०० से८.०० बजे तक सूत्र-स्वाध्याय | •८.०० से ९.०० बजे तक नवकारसी-उचित गृहकार्य | • ९.०० से १०.३० बजे तक प्रवचन श्रवण |.१०.३० से १२.३० बजे तक स्नान, अष्टप्रकारी पूजा | .१२.३० से १.३० बजे तक सुपात्रदान, भोजन |.१.३० से ४.३० बजे तक न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जन |.४.३० से ५.३० बजे तक सांध्य भोजन । •५.३० से ६.०० बजे तक संध्या आरती-चैत्यवन्दन | • शाम ६.०० से ७.०० बजे तक देवसी प्रतिक्रमण | •७.०० से ८.०० बजे गुरु वैयावच्च, स्वाध्याय | • रात्रि में ८.०० से ९.०० बजे तक परिवार के साथ धर्मचर्चा |• रात्रि ९.०० से ४.०० बजे तक नमस्कार मंत्र के स्मरणपूर्वक शान्तनिद्रा ।
उपर्युक्त समयसारिणी सभी को अनुकूल न हो तो इसके इर्द-गिर्द कुछ सामान्य परिवर्तन के साथ सेट कर सकते हैं।
प्रमाद छोड़ दिया जाय तो आज भी बहुत कुछ हो सकता है और समय का सदुपयोग कर जीवन में बहुत कुछ किया जा सकता है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के संदर्भ में विस्तार से न लिखकर पाठकों को इतनी ही सूचना करूंगा कि वे कम-से-कम एक बार तो इस ग्रन्थ का अवश्य अध्ययन करें ।
अनेक मुनि भगवन्त चातुर्मास दरम्यान इसी ग्रन्थ पर प्रवचन करते हैं । यही इस ग्रन्थ की लोकप्रियता का सूचक है । ग्रन्थकार महर्षि ने विधि के पालन के फायदे वे अविधि करने से होने वाले नुकसान आदि को अनेक छोटे-मोटे द्रष्टान्तों से तर्कपूर्वक समझाया है जिससे भवभीरु पाठकों को विधि में उत्साह व अविधि से पीछे हटने की वृत्ति पैदा हआ बिना नहीं रहेगी।
वीर प्रभु की उज्ज्वल परम्परा में ५१ वी पाट पर संतिकरं आदि अनेक प्रभावक स्तोत्रों के रचयिता सहस्रावधानी पूज्यपाद आचार्यदेव श्री मुनिसुन्दरसूरिजी महाराज हुए हैं, उनके पट्टधर के रूप में इस ग्रन्थ के रचयिता पूजा आचार्य श्री रत्नशेखरसूरिजी महाराज हुए हैं। .
"श्राद्धविधि" मूल ग्रन्थ १७ गाथाओं का है और उस पर ६७६१ श्लोक प्रमाण "विधि " नाम की संस्कृत टीका है । इस ग्रन्थ-निर्माण में श्री जिनहंस गणि आदि विद्वानों का सहयोग प्राप्त ह
"श्राद्धविधि" मूल ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है और उसकी टीका संस्कृत भाषा में है । अंग्रेजी आदि भाषाओं के मोह के कारण श्रावकवर्ग में प्राकृत-संस्कृत भाषा का ज्ञान दुर्लभ बनता जा रहा है । ऐसे समय में इन महान् ग्रंथो का अनुवाद आवश्यक हो जाता है । मुख्यतया श्रावक के लिए निर्मित इस ग्रन्थ को यदि श्रावक न पढ़े तो इस ग्रन्थ का लाभ क्या ?
श्रावकवर्ग में इस ग्रन्थ के स्वाध्याय का प्रचार हो, इसी उद्देश्य से इस ग्रन्थ का अनुवाद हुआ हैं । वि.सं. १९९५ में जैन विद्याशाला, अहमदाबाद की ओर से इस ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुआ था । आज इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो रहा है, यह हिन्दीभाषी वर्ग के लिए अत्यन्त ही आनन्द का विषय है।
इस हिन्दी अनुवाद के प्रेरक हैं सिद्धान्तमहोदधि, सुविशुद्ध ब्रह्मचारी पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज के चरम शिष्यरत्न पूज्य पंन्यास श्री कुलचन्द्रविजयजी गणिवर्य (वर्तमान में आचार्य) । वे आगमिक व दार्शनिक ग्रन्थों के कुशल अभ्यासी हैं । अध्ययन-अध्यापन में उन्हें विशेष रस है । उन्हीं की शुभप्रेरणा को प्राप्त कर आज इस महान् ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो रहा है।
सम्पूर्ण ग्रन्थ के अनुवादक हैं-जैन जगत् में "पंन्यासजी महाराज" के प्रिय नाम से सुप्रसिद्ध अजातशत्रु पूज्य पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री के चरम शिष्यरत्न प्रभावक प्रवचनकार पूज्य मुनिराज श्री रत्नसेनविजयजी महाराज (वर्तमान में आचार्य) । उत्साह एवं स्फूर्ति उनके जीवन का मूलमंत्र है | हिन्दी साहित्यसर्जन उनकी मुख्य प्रवृत्ति है । लेखन, वाचन व प्रवचन उनका दूसरा पर्याय है । प्रस्तुत अनुवाद को सरस-सरल व सुबोध बनाने में आपने पूरा प्रयत्न किया है । ग्रन्थकार, प्रेरक व अनुवादक की सफलता पाठकों पर निर्भर है । अन्त में, इस ग्रन्थ का पठन-पाठन कर इस ग्रन्थ में निर्दिष्ट आचारमार्ग को अपने जीवन में आत्मसात् कर समस्त श्रावक-वर्ग आत्मकल्याण के पथ पर आगे बढ़े, यही शुभाभिलाषा है । (प्रथम आवृत्ति में से साभार)