Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 8
________________ प्रकाशकीय सिद्धान्तमहोदधि वात्सल्यवारिधि कर्मसाहित्यनिष्णात स्व. पूज्यपाद प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के पुण्यनाम से भला कौन अपरिचित होगा ? निर्मल संयमजीवन एवं विशुद्ध ब्रह्मचर्य के साधनामय जीवन से जिन्होंने जिनशासन को अनेक श्रमणरत्नों की भेंट धरी है, वे मात्र नाम से ही नहीं कर्म से भी प्रेम के महासागर थे । उनके निर्विकार पवित्र नेत्रों में सदैव वात्सल्य का महासागर उछलता प्रतीत होता था । इसी के फलस्वरुप उनका वात्सल्य-सभर हाथ जिस पुण्यशाली के मस्तक पर गिरता, उसके जीवन में संयम का अनुराग पैदा हुए बिना नहीं रहता । भारत के अनेक श्री संघों के साथ-साथ पिंडवाड़ा श्री संघ पर भी उनकी असीम कृपाद्रष्टि थी । सचमुच, वे तो पिंडवाड़ा के गौरव थे । पिंडवाड़ा उनकी जन्मभूमि होने के नाते उन्होंने पिंडवाड़ा संघ के प्रत्येक परिवार पर तो उनका उपकार है ही, हमारे परिवार पर तो उनका विशेष उपकार रहा है। उन्हीं महापुरुषकी पुण्य प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद को प्राप्त कर हमारे परिवार के कुलरत्न चि. कान्तिलाल ने भर युवावस्था में वि.सं. २०२३ में अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री के वरदहस्तों से भागवती दीक्षा स्वीकार की और वे पूज्यपाद आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के चरण शिष्यरत्न के रूप में मुनिश्री कुलचन्द्रविजयजी महाराज बने । धर्ममार्ग में आगे बढ़ने के लिए परम पूज्य शासनप्रभावक आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनतिलकसूरीश्वरजी म.सा. की भी समय-समय पर प्रेरणा मिलती रही। उसके साथ ही अनेक पूज्य गुरुभगवन्तों के उपदेशश्रवणादि के फलस्वरुप पिंडवाड़ा नगर में शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु के नयनरम्य जिन-मंदिर-निर्माण का भी हमें लाभ मिला, जिसकी अंजनशलाका एवं पावन प्रतिष्ठा अध्यात्मयोगी निःस्पृहशिरोमणि पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्यश्री, परम पूज्य तपस्वीसम्राट् आचार्यदेव श्रीमद् विजय राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा., प.पू. प्रवचन-प्रभावक आचार्यदेव श्रीमद् विजय मुक्तिचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. तथा परमात्मभक्तिरसिक पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. आदि तथा हमारे कुलरत्न पूज्य मुनिश्री कुलचन्द्रविजयजी म. (वर्तमान में आचार्यश्री) आदि के शुभ सान्निध्य में वि.सं. २०३४ में सम्पन्न हुई थी। वि.सं. २०४१ में परम पूज्य कर्णाकटकेसरी आचार्यदेव श्रीमद् विजय भद्रंकरसूरीश्वरजी म.सा. तथा पूज्य मुनिश्री कुलचन्द्रविजयजी महाराज आदि के शुभ सान्निध्य में पिंडवाड़ा से शत्रुंजय महातीर्थ के छरी पालित संघ का भी लाभ मिला था, एवं वि.सं. २०५५ में प.पू. आ. कुलचन्द्रसूरिजी म. सा. पावन निश्रा में पालीताणा में भव्यातिभव्य नव्वाणुं यात्रा एवं वि.सं. २०६७ में उपधान तप का भी लाभ मिला और वि.सं. २०६८ में प.पू. आचार्य म.सा. का भव्यातिभव्य चातुर्मास का भी लाभ मिलेगा । प्रस्तुत 'श्राद्धविधि' ग्रन्थ श्रावक-जीवन के अलंकार समान है। मूल प्राकृत एवं टीका संस्कृत में विरचित प्रस्तुत ग्रन्थ का हिन्दी भावानुवाद परम पूज्य सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के प्रथम पट्टधर, जिनशासन के अजोड़ प्रभावक पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्यश्री के चरम शिष्यरत्न प्रवचनकार पूज्य मुनिश्री रत्नसेनविजयजी म. सा. ( वर्त्तमान में आचार्यश्री) ने किया है तथा अनूदित ग्रन्थ का संशोधन मेवाड़देशोद्धारक परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय जितेन्द्रसूरिजी म.सा. तथा उनके प्रशिष्ट विद्वान् मुनिराज श्री यशोरत्नविजयजी (वर्तमान में आचार्यश्री) ने किया है । उनके हम अत्यन्त ही आभारी है । प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापन द्वारा सभी पुण्यवन्त आत्माएँ मोक्षमार्ग में आगे बढ़कर शाश्वत सुख की भोक्ता बनें, यही शुभेच्छा है । लि... महेता रिखबदास अमीचन्दजी (पिंडवाड़ा राज.)

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