Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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विषय-परिचयं .. क्षायोपशमिक लब्धिसे प्राप्त होते हैं । तथा भव्यत्व, अभव्यत्व एवं सासादनसम्यक्त्व, ये पारिणामिक भाव हैं। शेष गति आदि समस्त मार्गणान्तर्गत जीवपर्याय अपने अपने कर्मों के व विरोधक कर्मोंके उदयसे उत्पन्न होते हैं । सूत्र ११ की टीकामें धवलाकारने एक शंकाके आधारसे जो नामकर्मकी प्रकृतियोंके उदयस्थानोंका वर्णन किया है वह उपयोगी है।
२ एक जीवकी अपेक्षा काल इस अनुयोगद्वारमें २१६ सूत्र हैं जिनमें प्रत्येक गति आदि मार्गणामें जीवकी जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थतिका निरूपण किया गया है । जीवस्थानमें जो काल की प्ररूपणा की गई है वह गुणस्थानोंकी अपेक्षा है, किन्तु यहां गुणस्थानका विचार छोड़कर मार्गणाकी ही अपेक्षा काल बतलाया गया है यही इन दोनोंमें विशेषता है।
३ एक जीवकी अपेक्षा अन्तर इस अनुयोगद्वारके १५१ सूत्रोंमें यह प्रतिपादन किया गया है कि एक जीयका गति आदि मार्गणाओंके प्रत्येक अवान्तर भेदसे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अर्थात् विहरकाल कितने समयका होता है।
४ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय इस अनुयोगद्वारमें केवल २३ सूत्र हैं। भंग अर्थात् प्रभेद और विचय अर्थात् विचारणा । अतएव प्रस्तुत अधिकारमें यह निरूपण किया गया है कि भिन्न भिन्न मार्गणाओंमें जीव नियमसे रहते हैं या कभी रहते हैं और कभी नहीं भी रहते । जैसे नरक, तिथंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमें जीव सदैव नियमसे रहते ही है, किन्तु मनुष्य अपर्याप्त कभी होते भी हैं और कभी नहीं भी होते । उसी प्रकार इन्द्रिय, काय, योग आदि मार्गणाओंमें भी जीव सदैव रहते ही हैं, केवल वैक्रियिक मिश्र, आहार व आहारमिथ' काययोगोंमें, सूक्ष्मसाम्पराय" संयममें तथा उपशम', सासादन व सम्पग्मिथ्या दृष्टि सम्यक्त्वमें, कभी जीव रहते हैं और कभी नहीं भी रहते । इस प्रकार उक्त आठ मार्गणारं सान्तर हैं और शेष समस्त मार्गणाएं निरन्तर हैं ( देखो गो. जी. गाथा १४२ )।
५ द्रव्यप्रमाणानुगम . इस अनुयोगद्वारके १७१ सूत्रों में भिन्न भिन्न मार्गणाओं के भीतर जीवोंका संख्यात, असंख्यात व अनन्त रूपसे अवसर्पिणी उत्सर्पिणी आदि कालप्रमाणोंसे अपहार्य व अनपहार्य रूपसे एवं योजन, श्रेणी, प्रतर व लोकके यथायोग्य भागांश व गुणित क्रम रूपसे प्रमाण बतलाया
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