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श्री आ. शां. जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था, फलटणका
संक्षिप्त परिचय
श्रेयःपद्मविकासवासरमणिः स्याद्वादरक्षामणिः संसारोरगदर्पगारुडमणिर्भव्यौघचिन्तामणिः । आशान्ताक्षयशान्तिमुक्तिमहिषीसीमन्तमुक्तामणिः
श्रीमद्देवशिरोमणिविजयते श्रीवर्धमानो जिनः ।। आचार्य श्री शान्तिसागर महाराजके जीवन-चरित्र और जीवन सन्देशसे सकल दिगम्बर जैन समाज भलीभांति परिचित है । आचार्यश्रीका तपोमय पवित्र जीवन परग गौरवशाली रहा है । उनके जीवन-कालमें अगणित धर्मकार्योकी सम्पन्नता और विविध संस्थाओंकी स्थापना हुई है । उन्होंने अपने समाधि-कालमें स्वात्मानुभव तथा आगमके अनुसार जीवनकी सफलताके लिए अपूर्व उपदेश देकर संसारको सुख-शान्तिका मार्ग-दर्शन किया है, जिसमें पहला आत्म-चिन्तनका और दूसरा निरन्तर आगम-रक्षा तथा ज्ञान-दानका पावन सुलभ मार्ग बतलाया है । आत्म-चिन्तनका मार्ग व्यक्तिगत है, फिर भी इस मार्गपर चलने के पहले आत्मविश्वासके लिए आगमका अध्ययन आवश्यक है । सर्व साधारणको आगमकी प्राप्ति सुलभ हो, इसके लिए आचार्यश्रीने समय-समयपर अपने उपदेशों द्वारा अमूल्य शास्त्र प्रदान करनेकी प्रेरणा की और उसके फल-स्वरूप परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्थाका जन्म हुआ। ...
इसी समय आचार्यश्रीको ज्ञात हुआ कि दिगम्बर सम्प्रदाय के महामान्य और प्राचीनतम ग्रन्थराज श्री षट्खण्डागम ( धवल ), कसायपाहुड ( जयधवल ) और महाबंध ( महाधवल ) की एक मात्र मूडबिद्रीमें उपलब्ध ताडपत्रीय प्रतियां जीर्ण-शीर्ण होती जा रही हैं, उनमेंसे एक ग्रन्थके तो पांच हजार श्लोक नष्ट हो गये हैं, और शेषके पत्र हाथमें उठाते ही टूटकर बिखरने लगे हैं । यह ज्ञात होते ही आचार्यश्रीका हृदय द्रवीभूत हो उठा और अहर्निश यह विचार मनमें चक्कर लगाने लगा कि किस प्रकार इस अमूल्य आगम-निधिकी रक्षा की जाय, जिससे कि ये ग्रन्थराज युग-युगान्त तक सुरक्षित रह सकें । उन्होंने अपना आशय समाजके कुछ प्रमुख लोगोंके सामने. व्यक्त किया कि यदि इन ग्रन्थराजोंको ताम्रपत्रोंपर उत्कीर्ण करा दिया जाय, तो यह अमूल्य श्रुतनिधि युग-युगके लिए सुरक्षित हो जाय । तदनुसार उक्त कार्यको सम्पन्न करनेके लिए “ प. पू. चा. च. श्री १०८ आ. शान्तिसागर दि. जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक " संस्थाकी स्थापना वीर सं. २४७० के पर्युषण पर्वपर श्री सिद्धक्षेत्र कुन्थलगिरिपर हुई।
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