Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
स्वार्थ के लिए वा विषयभोगों की तृष्णाके लिए बांधे थे। परन्तु वे ही कर्म उदय आनेपर इस जीवको चारों गतियोंमें परिभ्रमण कराते हैं जिसप्रकार चोरी करनेवाले चोरको राजकर्मचारी पकड़कर बांध लेते हैं परन्तु उसमें राजकर्मचारियोंका कुछ स्वार्थ नहीं है। चोरी करने के अपराधसे ही वे उसको बांधते हैं, इसी प्रकार जीवका ही स्वयं अपराध होनेसे जीव बांधा जाता है तथा उस अपराधके कारण ही कर्म उसे बांधकर चारों गतियों में परिभ्रमण कराता हैं ।
प्रश्न-- गुरो यत्र भवेद्रागस्तत्र द्वेषो न वा वद ?
अर्थ- हे भगवन् ! अब यह बतलाइये कि जहांपर राग होता है वहां पर ष होता है वा नहीं अर्थात् जिम जीवके राग होता है उसके द्वेष होता है वा नहीं ?
उत्तर - यस्यास्ति रागो भवदुःखदश्च,
समस्तसंकल्पविकल्पकारी ।
द्वेषोपि तस्यावयवेस्ति पूर्णा, मिथः सदा वैरविरोधहेतुः ॥ ३१ ॥
१९
ग्रस्तः सदा भोगपिशाचवगँ -, यः कोपि मूर्खश्च कुटंबवर्गः । द्वेषो न कस्योपरि मे प्रभो स्याद्, ब्रवीति चेयं स खलेषु मुख्यः ॥ ३२ ॥
अर्थ जिस जीवके आत्मामें समस्त संकल्प विकल्पोंको करनेवाला और संसारके महादुःख देनेवाला राग होता है, उस जीवके अवयवों में सदाकाल वैर विरोधको वद्वानेवाला वा परस्पर वैर विरोधका कारण ऐसा द्वेष भी पूर्ण रीतिसे रहता है। यदि भोगोपभोगरूपी पिशाच्चोंके समूहसे ग्रस्त हुआ और अनेक कुटंबियोंसे घिरा हुआ कोई भूर्ख पुरुष यह कहे कि हे भगवन् ! मैं किसीसे द्वेष नहीं करता तो समझना चाहिए कि वह दुष्टों में भी मुख्य दुष्ट है।
भावार्थ- संसारी जीवोंमें यह नियमसिद्ध सिद्धान्त है कि जहां जहां राग होता है वहां-वहां द्वेष अवश्य होता है अथवा जहां जहां द्वेष