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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
स्वीकार करना ही पडेगा कि दंड, चक्र आदि अवयवो के आधार पर मात्र व्यवहार के लिए ही 'रथ' नाम दिया गया हैं । अवयवो को छोडकर अवयवी की सत्ता देखने को नहीं मिलती हैं । उसी तरह से, "आत्मा" नाम केवल व्यवहार के लिए हैं । परन्तु शरीर - शरीर की प्रवृत्तियाँ और मन-मन की प्रवृत्तियों से अतिरिक्त आत्मा की वास्तविक सत्ता ही नहीं हैं ।
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(२) क्षणिकवाद(50) : जिसमें गौतमबुद्ध का उपदेश संग्रहित हुआ हैं, ऐसे त्रिपिटको के कथनानुसार आत्मा और जगत् अनित्य हैं । उनका कालिक संबंध दो क्षण भी रहता नहीं हैं ! पंचस्कंध भी 'क्षण के लिए समानरुप में नहीं रह सकते हैं । जीव और जगत दोनों परिणामशाली हैं ।
"जो सत् हैं वह क्षणिक ही हैं। क्योंकि अक्षणिक (नित्य पदार्थ) में अर्थक्रिया का विरोध है और अर्थक्रिया रहित " वस्तु" होती ही नही हैं ।" इस बौद्धो के सिद्धांत को प्रस्तुत ग्रंथ में श्लो. ७ की टीका में विस्तार से समझाया है । इसलिए यहाँ विस्तार करते नहीं हैं ।
(३) प्रतीत्यसमुत्पादवाद: कार्य-कारण भाव को समजाते इस सिद्धांत का निरुपण पहले किया गया ही हैं । गौतमबुद्ध के इस सिद्धांत में आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को कोई स्थान नहीं है । वे आत्मवाद को महा अविद्या कहते थे । सातवट्टत्त भिक्षु के साथ के वार्तालाप में (कि जो महातण्हा संख्य-सुतन्न, म०नि०१-४-८ में वर्णन किया है उसमें ) स्पष्ट रूप से आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का निषेध दिखाई देता हैं ( (51)
(४) अनीश्वरवाद : बौद्धदर्शन जगत के कर्ता, भर्ता, हर्ता, एक और नित्य ऐसे ईश्वर को नहीं मानता है । गौतम बुद्धने भार्गव गोत्र - परिव्राजक के साथ के वार्तालाप के अंत में ईश्वर का निषेध बताया हैं । (52)
बौद्धदर्शन की चार निकाय :
बौद्धदर्शन की चार निकाय हैं । गौतम बुद्धने प्ररूपित किये हुए धर्म में प्रारंभ में कोई भेद नहीं था । उसके बाद के काल में हुए बौद्धाचार्यो ने गौतम बुद्धने प्ररूपित किये हुए सिद्धांतो का भिन्न-भिन्न अर्थघटन करके अपने नये सिद्धांतों की स्थापना की थी । उसमें मुख्य चार पंथ दिखाई देते हैं । (१) वैभाषिक, (२) सौत्रान्तिक, (३) योगाचार और (४) माध्यमिक | ( 53 )
वैभार्षिक बाह्यार्थप्रत्यक्षवादी हैं । उनके मतानुसार जगतवर्ती बाह्य पदार्थों का अपलाप किसी भी प्रकार से हो सके, ऐसा नहीं है । बाह्यार्थ को प्रत्यक्षरूप से सत्य माननेवाला वैभाषिक संप्रदाय हैं ।
सौत्रान्तिक बाह्यार्थानुमेयवादी हैं । उनके मतानुसार जगतवर्ती बाह्य वस्तुओं का अपलाप नहीं हो सकता, यह बात ठीक हैं । परन्तु बाह्यार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान हमको नहीं हो सकता है । यदि समग्र वस्तु क्षणिक है, तो किसी भी वस्तु
50. यथा यत् सत् तत् क्षणिकमेव, अक्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधात् तल्लक्षणवस्तुत्वं हीयते (हेतुबिन्दु पृ-५४) । 51. गौतमबुद्ध और सातिकेवट्टपुत्त का संपूर्ण वार्तालाप राहुल सांकृत्यायन विरचित 'बौद्धदर्शन' पृ. २४-२५ उपर लिखा है । 52. यह वार्तालाप पाथिकसुत्त, दी. नि. ३ / १ में संगृहित हुआ है । बौद्धदर्शन पुस्तक, पृ. २९-३०-३१- ३२ पर विस्तार से हिन्दीभाषा में पेश किया है । 53. अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणेष्यते, प्रत्यक्षेण न हि बाह्यवस्तुविसरः सौत्रान्तिकादतः । योगाचारमतानुगैरभिमता साकारबुद्धिः परा, मन्यन्ते बत मध्यमा, कृतधियः स्वच्छां परां संविदम् ।। (श्री राजशेखरीय षड. समु. १४५) मुख्य माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगद्; योगचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः । अर्थोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्ध सौत्रान्तिकः, प्रत्यक्षं क्षणभंगुरं च सकलं वैभाषिको भासते । अर्थो ज्ञानान्वितो वैभाषिकेण बहु मन्यते, सौत्रान्तिकेन प्रत्यक्षग्राह्योऽर्थो न बहिर्मत आकारसहिता बुद्धियोगाचारस्य सम्मता, केवलां संविदं स्वस्थां मन्यते मध्यमाः पुनः ।। (मानमेयोदयः)
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