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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
प्रकार से हैं - (१) जरामरण, (२) जाति, (३) भव, (४) उपादान, (५) तृष्णा, (६) वेदना, (७) स्पर्श, (८) षडायतन, (९) नामरुप, (१०) विज्ञान, (११) संस्कार और (१२) अविद्या । इस कारण परंपरा में पूर्व की प्रति पर निर्दिष्ट कारण हैं । जैसे कि, जन्म-मृत्यु प्रति जाति (जन्म लेना) वह कारण हैं । जाति का कारण संसार (भव) हैं (अर्थात् जीवमात्र का पुनर्जन्म उत्पन्न करनेवाला कर्म ।) भव का कारण हैं उपादान उ आसक्ति (उपादान अनेक प्रकार के होते हैं । कामोपादन उ स्त्री में आसक्ति, शीलोपादन उ व्रतो में आसक्ति और उससे आगे बढकर आत्मोपादन उ आत्मा को नित्य मानने का आग्रह ) । उपादान का कारण हैं तृष्णा । ( इन्द्रिय द्वारा बाह्य अर्थ के अनुभव बिना तृष्णा की उत्पत्ति नहीं हो सकती है इसलिए) तृष्णा की उत्पत्ति वेदना (इन्द्रियजन्यानुभूति) में से होती है । इसलिए तृष्णा का कारण वेदना हैं । वेदना का कारण स्पर्श (इन्द्रिय और विषय का संपर्क) है, उस स्पर्श का कारण षडायतन हैं । (अर्थात् मन सहित पांच इन्द्रियो के बिना तादृश संपर्क संभव नहीं हैं । इसलिए स्पर्श के प्रति षडायतन कारण हैं।) षडायतन का कारण नामरुप हैं । (नामरुप अर्थात् दृश्यमान शरीर तथा मन से संवलित संस्थान विशेष ।) शरीर और मन से संवलित संस्थान विशेष SIT कार्य डायन है । नामरूप की सत्ता विज्ञान के कारण हैं । (यह चित्तधारा या चैतन्य मातृगर्भ से भ्रूण के नामरुप की साधक हैं।) इस विज्ञान का कारण संस्कार हैं । (संस्कार उ पूर्वजन्म के कर्म और अनुभव से उत्पन्न संस्कार) । ( संस्कार का कारण अविद्या हैं । अविद्या का कार्य संस्कार हैं ।)
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पूर्वोक्त सभी दुःखो के समूह का आद्य कारण अविद्या हैं । इस द्वादश निदान के चक्र को " भवचक्र" कहा जाता हैं । इस भवचक्र का संबंध भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों जन्मो के साथ हैं । इन द्वादश निदानो का दूसरा नाम "प्रतीत्यसमुत्पाद" हैं । उसका दूसरा नाम "सापेक्षकारणतावाद" हैं । बौद्धदर्शन में कार्य कारणभाव की व्यवस्था इस सिद्धांत के आधार पर हैं । वह बौद्धधर्म का मौलिक सिद्धांत हैं । पूर्वोक्त कारण श्रृंखला का संबंध तीनों जन्म के साथ | अविद्या और संस्कार अतीत जन्म के साथ संबद्ध हैं । विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान और भव ये आठ वर्तमान जन्म के साथ संबद्ध हैं । जाति और जरामरण भविष्य जीवन के साथ संबद्ध
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तृतीय आर्यसत्य दुःख निरोध उ निर्वाण हैं । कारण की सत्ता के उपर ही कार्य की सत्ता अवलंबित रहती हैं । पूर्वोक्त भवचक्र का मूल कारण अविद्या हैं। विद्या द्वारा अविद्या का निरोध किया जाये तो भवचक्र का अंत आये और निर्वाण की प्राप्ति हो जाती हैं ।
चतुर्थ आर्यसत्य "दुःखनिरोध मार्ग" हैं अर्थात् निर्वाण मार्ग हैं । श्री गौतम बुद्धने निर्वाण मार्ग के रूप मध्यम मार्ग प्रस्थापित किया हैं । अतिशय विलास के मार्ग का और अतिशय कष्टो को सहन करने के मार्ग का त्याग करके "मध्यम प्रतिपदा" की खोज गौतम बुद्धने की थी । इस मार्ग को " आर्यअष्टांतिक मार्ग" भी कहा जाता हैं । जिसके आठ अंग इस प्रकार से हैं- (१) सम्यक् ज्ञान ( आर्यतत्त्वो का तत्त्वज्ञान) (२) सम्यक् संकल्प, (३) सम्यक् वचन, (४) सम्यक् कर्मान्त ( हिंसा, द्रोह, दुराचरण रहित कर्म), (५) सम्यक् आजीव (न्यायपूर्ण आजीविका) (६) सम्यक् व्यायाम ( खराब वृत्तिओं को नियंत्रण में रखने का और सुवृत्तिओं को उजागर करने का प्रयत्न करना ।) (७) सम्यक् स्मृति: (चित्त, शरीर, वेदना आदि अशुचि - अनित्य है, ऐसी स्मृति और लोभादि चित्त के संताप से दूर जाना) (८) सम्यक् समाधि : (राग-द्वेषादि द्वन्द्वो के विनाश से उत्पन्न चित्त की शुद्ध नैसर्गिक एकाग्रता ) - इस अष्टांगिक मार्ग के यथार्थ सेवन से प्रज्ञा का उदय होता हैं और निर्वाण की तुरंत प्राप्ति होती हैं ।
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