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सत्यामृत
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aar arrer earचारी योगी बन जाता है पर वह
परिस्थितिवश पुण्य बनने की इच्छा नहीं करता। प्रत्युपकार स्वीकार करने से और प्राप्त का भोग करने से भी मनुष्य गच्छहोता है पुण्य होने में पाप नहीं है पर न होने में पुण्यसंचय अवश्य है ।
प्रश्न- अपने जो
पुण्य भेद बतलाया उससे मम होता है कि हमें महात्माओं का, areesia, उपकारियों का आदर सत्कार पजा आदि न करना चाहिये क्योंकि इससे वे
होगे जो कि वे होना नहीं चाहते । उत्तर- इसका दुष्परिणाम यह होगा कि तुम्हारे मन से भी यह बात निकल जायगी कि लोकसेवा आदि पुण्य है, इसलिये तुम लोकसेवा आदि से वंचित रह जाओगे । जो असर तुमपर होगा वही दूसरों पर होगा, इससे लोकसेवकों के दर्शन दुर्लभ हो जायगे क्योंकि तुम्ही में से लोक सेवक आते हैं। जगन में से परोपकार आदि उट जांय तो प्रलय ही समझो। इसीलिये तो कहा कि उरण प्रवति हरएक को करना चाहिये अगर उरण प्रवृधि न की जाय तो पाप होगा । उपकारियों का आदर सत्कार पूजा तुम्हें अधिक से अधिक करना चाहिये और उपकारियों को उससे बचने की कोशिश करना चाहिये इस से दोनों की शोभा है दोनों पुण्य संचय करते हैं।
४ शुक्त पुण्य प्रवृति-यश पूजा आदि की इच्छा से कोई अच्छा कार्य करना । ऐसा आदमी
का फल पहले ही भोग लेता है इसलिये पीछे के लिये उनका पुण्य कुछ बच नहीं रता । सदाचार में ऐसी प्रवृतियों को स्थान नहीं है ।
५ नष्टपुण्य प्रवृत्ति पुण्य का फल इस तरह मोगा कि उसकी पुण्यता नष्ट हो जाय ।
जैसे अपनी महत्ता के लिये अपने ही मुँह से अपनी सेवाओं के गीत गाने लगना, ऐसे आदर सन्मान के लिये आगे आगे करना जो अपनी सेवा से अधिक हो, या प्राप्त होने योग्य आदर आदि को जबर्दस्ती छीनने की कोशिश करना, मतलब यह कि ऐसे भद्दे तरीके से पुण्य का फल भोगने की कोशिश करना जिससे पुण्य न रहे, प्रशंसा और यश, निन्दा अपकीर्ति और घृणा में परिणत हो जाय, यह नष्टपुण्य प्रवृत्ति हैं । एकबार मुझे ऐसे विशाल भोज में शामिल होने का दुर्भाग्य मिला जहां परोसने का इन्तजाम ठीक नहीं था, कुछ लोग घेर का एक बड़ा टोकना उठा लाये जिस में शायद मनभर घेवर होगा । उसे छीन छीन कर अपनी पत्तल में रखने के लिये इतने आदमी टूट पड़े कि वह सारा घेवर जमीन में विखर कर पैरोंसे कुचल गया इतना ही नहीं किन्तु पत्तलों में जो पहिले से भोजन परोस कर रक्खा गया था वह भी पैरों से कुचल गया । इस प्रकार लोगों की मूढ़तापूर्ण उतावली या भुखमरापन से मनभर अन्न नष्ट हो गया । इसी तरह बहुत से लोग यश पूजा आदर आदि के रूप में अपनी सेवाओं का फल भोगन के लिये ऐसी उतावली या अदतादान करते हैं, एक तरह से भुखमरापन का परिचय देते हैं कि उनकी सेवाओं का पुण्य नष्ट हो जाता है । सदः चार में ऐसी प्रवृत्तियों को स्थान नहीं है।
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प्रश्न -- कभी कभी मनुष्य को जनसेवा के लिये भी नष्टपुण्य बनने की आवश्यकता होती है । जब हमारे पास कोई जनहितकारी सत्य होता है या शक्ति होती है परन्तु जनता भ्रमवश अथवा अपनी सनातन नीति के अनुसार उस सत्य पर या शक्ति पर अविश्वास कर अपना