Book Title: Satyamrut Achar Kand
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 16
________________ भगवती अहिंमा [ २२२ प्रवृत्ति को भी स्थान है । हो, यह प्रवृत्ति पाप या १ मूल नि-ब- को टिकाने के लिय अशुद्ध पुण्य न होना चाहिये । गदाचार के भीतर जो प्रवृत्ति है वह मूल प्रवृत्ति है। ग्वाना पीना, उमी प्रवृत्ति का समावेश हो सकता है जो शुद्ध चलना, उटना, बैठना, आदि मूल प्रवृत्तियाँ हैं। पुण्यरूप हो । प्रवृत्ति के रूप इतने भिन्न भिन्न है इन्हें न तो पुण्य कह सकते हैं न पाप । इन कि इतने से ही उस पूरी तरह समझ लेना कठिन प्रवृत्तियों के लिये जो दूसरी प्रवृशियां की जाती है । एक प्रवृत्ति जो एक तरफ़ से शुद्ध मालूम है वे पुण्य या पाप रूप हो जाती हैं जैसे भोजन होती है दूसरी तरफ़ से अशुद्ध हो सकता है। करना न पुण्य है न पाप, परन्तु भोजन के लिये एक आदमी ने धर्मशाला बनवाई और उसके जबदस्ती करना, दूसरों को सताना पाप है। मतनियम भी खूब उदार रक्खे जिससे वह शद्ध लब यह कि मूल प्रवृत्तियों के आधार से पुण्यपाप प्रवृत्ति कहन्दावे पर यह सब काम उसने सिर खड़े होते है वे स्वयं न पण्यरूप हैं न पापरूप इसलिये किया जिससे उसका यश हो और परीमी है, इनसे सदाचार को धक्का नहीं लगता इन्हें सेठ को, जिसने छोटी धर्मशाला बनाई है. नीचा सब काइ कर सकता है। देखना पड़े, ऐसी भावना के माथ उदार से उदार २ उरण प्रवृषि-धन पैसा या सेवा आदि नियमवाटी धर्मशाला भी पण्य नहीं कहला मकती का ऋण चकाना । इस प्रवत्ति के करने में पुण्य क्योंकि सा यगोलाला व्यक्ति यश की बंदीपर नहीं है पर न करने में पाप अवश्य है इसलिये जनहित का भी बलिदान करता है, इसके लिये वह जिसके सामने इसका अवसर आवे उसे अवश्य पाप से भी सम्पत्ति पैदा करता है, यश न मिले तो यह करना चाहिये । सदाचारी और योगी के वह विश्वासवान भी करता है, दूसरें का अपमान लिये भी यह कर्तव्य है। भी करता है इस प्रकार विश्वकल्याण की राह एक आदमी अपने शरीर पोषण के लिये विश्व का अकल्याण अधिक कर जाता है, कल्याण समाज से लेता है पर उसके बदले में समाज की उसे पर्वाह नहीं होती। इस प्रकार शुद्धपुण्य रूप सुखके लिये आवश्यक कुछ देता नहीं है इस दिखनेवाली प्रवृत्ति कैसी अशुद्धपुण्य या नष्टपुण्य प्रकार अगर वह उरण नहीं होता तो पाप होती है यह भी समझ लेना चाहिये । इसके लिये करता है। प्रवृत्ति के भेद कुछ विशेष रूपमें बतलाना पड़ेंगे। अपने उपकारी का आदर सेवा विनय आदि प्रवृत्ति दस तरह की होती हैं करना भी उरण प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति के दस भेद ३ गच्छ-पुण्य प्रवृत्ति-अपने पुण्य का १ मूत्र प्रवृत्ति, २ उरण प्रवृत्ति, ३ गच्छ- फल भोगना । हमने किसी की या समाज की पुण्य प्रवृत्ति ४ मुक्त पुण्यप्रवृत्ति ५ नष्टपुण्य प्रवृत्ति सेवा की उसने हमारा आदर कर किया यश ६ अज्ञातपुण्य प्रवृत्ति ७ पाप प्रवृत्ति, ८ अशुद्ध गाया तो उनने अंश में हम पुण्य का फल भोग पुण्य प्रवृत्ति ९. पुण्यापाप प्रवृत्ति, १० शुद्ध चुके । जितने अंश में हम आदर सत्कार आदि 'पुण्य प्रवृति। लेंगे उतने अंश में हमारा पुण्य फल देता हुआ

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