Book Title: Satyamrut Achar Kand
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 14
________________ भगवती अहिंसा पहिले करना चाहिये । न्यायरक्षा के लिये तो करना ही चाहिये पर इसलिये भी करना चाहिये कि उस देश में या समाज में रहने के कारण हम अनेक प्रकार से उसके ऋणी हैं। इसके लिये वह अन्याय न करेगा विश्वहित के विरुद्ध न जायगा यही उसकी उदारता है । उदारता से अतिया का कोई सम्बन्ध नहीं है । जो लोग अकर्मण्यता या द्वेष को उदारता को ओट में छिपाते हैं वे दंभी हैं उदारता मे कोम दूर हैं । उदारता व्यवहार में कोई अड़ंगा नहीं डालती किन्तु व्यवहार को व्यापक, सुखद और न्यायोचित बनाती है । जिनके जीवन में जिस श्रेणी की बहुलता हो उन्हें उसे श्रेणी में सर चाहिये । प्रवृति के प्रकरण म उन व्यक्तियों से मतलब नहीं है किन्तु उस श्रेणी के कार्य से मतलब है । त्रिविध प्रवृत्ति इनमें से सातवीं श्रेणी पूर्णशुन अर्थात् शुद्ध शुभ या शुद्ध है । इस तरह की प्रवृत्ति अर्हत् जिन योगी बुद्ध वीतराग स्थितिप्रज्ञ आदि महात्माओं की हुआ करती है । परन्तु प्रारम्भ की जो छः श्रेणियां हैं वे पूर्ण शुभ नहीं हैं उनके साथ थोड़ा न थोड़ा अशुभ लगा ही रहता है। वे अपने स्वार्थ की सीमा के भीतर भले ही शुभ हों पर उम सीमा के बाहर अशुभ होती हैं। उदार श्रेणी का मनुष्य मनुष्य से प्रेम करेगा पर मनुष्य के थोड़े से सुख के लिये पशु के महान से महान कष्ट की भी पर्वाह न करेगा, वह अधिक का हिना भूल जायगा और लगायगा भी तो सिर्फ मनुष्यों के सुख के विचार में अधिकतम सुख की नीति कान में लेगा । इस प्रकार उसके शुभ कार्य में भी अशुभ का चित्र मिला रहेगा । और जब यह अधिक हो जायगा तब इस प्रवृत्ति को पाप ही कहेंगे । | २२० शुभ से अशुभ या अदार व्यक्ति राष्ट्र के लिये प्राण भी दे देगा पर राष्ट्र के स्वार्थ के लिये दूसरे राष्ट्र के बर्बाद करने में भी न चूकेगा । इसी प्रकार अल्पो दार आदि भी अपने क्षेत्र के बाहर नीति अनीति का विवेक भूल जाते हैं। इस प्रकार के भी पापी हो जाते हैं । जब कोई मनुष्य अपनी स्वार्थ सीमा के बाहर इतना पाप कर जाता है कि वह स्वार्थ सीमा के भीतर के पुण्य से बात है वित के नियमों का उल्लंघन कर जाता है तब वह पापी हो जाता है। इस प्रकार अध्याय में चतलाये हुए विश्वहित के विरुद्ध रहती है वह पाप या अशुभ प्रवृत्ति है। जो इस विश्वहित के विरुद्र तो नहीं है पर जिन में दृष्टि अनुदार है, प्रवृत्ति का कारण राग है, यह अशुद्ध जिसमें राग नहीं है या सिर्फ गुणानुराग है, दृष्टि है वह अशुद्ध शुभ को अशुद्ध पुण्य और शुद्ध शुभको शुद्ध पुण्य कहना चाहिये । पाप, अशुद्ध पुण्य, और शुद्ध पुण्य इन तीनों के भेद को कुछ उदाहरणों से सष्ट करना ठीक होगा । है। वी है एक आदमी अपने राष्ट्र उत्कर्ष के लिये दूसरे पर आक्रमण करता है उन्हें गुलाम बनाता है तो यह पाप है, एक आदमी अपने पराधीन राष्ट्र को स्वतन्त्र करने के लिये विजयी राष्ट्र पर आक्रमण करत है यह अशुद्ध है और एक आदमी अपने ही नहीं किन्तु किसी भी राम की गुलाम बनना पर करते है, इस दृष्टि से कि दुनिया के सभी राष्ट्र स्वतन्त्रता

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