Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकरण - 2 1 वेदवाङ्मय संसार के सभी देशों के विद्वानों ने भारत के वेद वाङ्मय की अतिप्राचीनता और श्रेष्ठता शिरोधार्य मानी है। धर्म, शास्त्र, दर्शन, विद्या, कला आदि विविध सांस्कृतिक विषयों के मूल तत्त्व, अन्वेषकों को वैदिक वाङ्मय में ही दिखाई देते हैं। महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष के विख्यात निर्माता डॉ. श्रीधर व्यंकटेश केतकर, ज्ञानकोष की अपनी प्रस्तावना में, वेदों का महत्त्व वर्णन करते हुए कहते हैं, "वेद सब विद्याओं का उद्गम स्थान है इस विषय में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। अपने (भारतीय) तथा अनेक यूरोपीयों के सामान्य पूर्वजों के प्राचीनतम स्थितिबोधक वाङ्मयान्तर्गत अवशेष के नाते से, वेदों को विश्व के वाङ्मयीन इतिहास में अग्रस्थान देना आवश्यक है, यह बात यूरोपीय पंडितों ने भी मान्य की है। हजारों वर्षों से कोटि कोटि भारतीय लोग वेदाक्षरों को ईश्वरी वाणी मानते आए हैं। भारतीय वाङ्मय में वेद ही प्राचीनतम होने के कारण, भारतीयों का आध्यात्मिक जीवनक्रम और उनकी संस्कृति का यथार्थ ज्ञान, वैदिक वाङ्मय का अध्ययन किये बिना प्राप्त नहीं होगा। उसी प्रकार वेदकालीन परिस्थिति ठीक समझे बिना एवं पूर्वस्थितिबोधक वाङ्मयान्तर्गत अवशेष समझे बिना, अपने पूर्वजों की जानकारी हमें नहीं होगी, यह जानकर वेदों के विषय में पूज्यबुद्धि धारण करना अपना कर्तव्य है। यूरोपीय विद्वान भी इस तथ्य को समझ गए हैं। चीन, जापान के पंडितों को भी वेदाभ्यास की आवश्यकता है, क्यों कि बौद्ध सम्प्रदाय की जन्मभूमि हिंदुस्थान ही होने के कारण, वेदों की जानकारी के अभाव में, उस सम्प्रदाय का रहस्यज्ञान याने इतिहाससहित ज्ञान, यथार्थतया प्राप्त होना असंभव होगा। नए विद्वानों को पुराना ज्ञान होना आवश्यक है। पश्चिम के इसाई विद्वानों को "पुराना करार" (ओल्ड टेस्टामेंट) समझे बिना “नया करार" (न्यू टेस्टामेंट) नहीं समझ में आ सकता। उसी प्रकार वेदकालीन धर्म और वेदोक्त तत्त्वों को ठीक समझे बिना, किस परिस्थिति में, नवीन मतों एवं धर्मों का उद्गम हुआ यह समझ में आना असंभव है।" वेदों के प्राचीन और अर्वाचीन अभ्यासकों के मतों का सारसर्वस्व, ज्ञानकोशकार डॉ. केतकर जी के वेदविषयक प्रस्तुत प्रतिपादन में अन्तर्भूत हुआ है। अतः वेदों की महिमा के विषय में अधिक प्रतिपादन करने की आवश्यकता इस प्रकरण में नहीं है। वेदों के विषय में हिंदू समाज में अतिप्राचीन काल से आत्यंतिक श्रद्धा धधकती रही है। बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा है कि, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, परमात्मा के निःश्वास हैं, (अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितम् एतद् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्वागिरसः)। मनुस्मृति में कहा है कि "वेद सर्व ज्ञानमय है (सर्वज्ञानमयो हि सः।) और संपूर्ण वेद, धर्म का मूल है (वेदोऽखिलो धर्ममूलम्) । वेदों की निन्दा करने वालों के प्रति “नास्तिक' शब्द से तिरस्कार व्यक्त किया जाता था- (नास्तिको वेदनिन्दकः)। वेद का लक्षण अन्यान्य विद्वानों द्वारा विविध प्रकार से बताया गया है। वेदों के विख्यात भाष्यकार सायणाचार्य, “अपौरुषेयं वाक्यं वेदः" याने अपोरुषेय वाक्य को वेद कहते हैं, इस प्रकार "वेद" की व्याख्या करते हैं। आगे चल कर सायणाचार्य कहते हैं कि, "जिस विषय का ज्ञान प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा नहीं हो सकता, उस विषय ज्ञान, वेद द्वारा हो सकता है, इसी में वेद की वेदता है। (प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते। एतं विदन्ति वेदेन तस्मात् वेदस्य वेदता।।) अन्यत्र वे कहते हैं, कि “इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट का परिहार करने का अलौकिक उपाय जिसके द्वारा बताया जाता है, उसे वेद कहते हैं- (इष्टप्राप्ति-अनिष्टपरिहारयोः अलौकिकम् उपायम् वेदयते स वेदः । आधुनिक काल में आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने “विद्" - धातु के सारे अर्थ ध्यान में लेते हुए वेद का लक्षण बताया है- “विदन्ति-जानन्ति, विद्यन्ते-भवन्ति, विन्दन्ति विदन्ते सर्वाः सत्यविद्याः यैः यत्र वा स वेदः।" याने जिसके सहाय से अथवा जिसके अन्तर्गत, सभी सत्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त होता है उसे वेद कहते हैं। वेदों के प्रति इतनी उत्कट भक्ति भारतीय समाज में अति प्राचीन काल से दृढतापूर्वक रही अतः उसके अविकृत रक्षण का अद्भूत कार्य इस समाज के विद्यानिष्ठ लोगों ने किया। अविकृत विशुद्ध स्वरूप में संरक्षित वेदों के समान दूसरा कोई भी प्राचीनतम ज्ञाननिधि आज संसार में नहीं है। विशेष आश्चर्य याने यह सारी महान् ज्ञानराशि वैदिकों ने कण्ठस्थ करते हुए सुरक्षित रखी। इसके लिए अष्ट “विकृति" युक्त वेदपठन की अद्भूत पद्धति उन्होंने चालू की। "जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः।" अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः क्रमपूर्वाः महर्षिभिः।। इस श्लोक में उन आठ विकृतियों याने पद्धतियों का यथाक्रम नामनिर्देश किया है। पठन की इस पद्धति के कारण ही 6/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only

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