Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 12
________________ ३- संबोह पंचासिया तो जिणधम्मं कीरड़ अणादरं णेव कायां ॥३०॥ टीका :- हे जीव ! येन धर्मेण कृत्वा लक्ष्मीः स्थिरा भवति, पुनः । रोगाः मृत्युश्च क्षयं यान्ति तर्हि कस्माज्जिनधर्मः न क्रियते ? अपितु क्रियत इति मत्वा मिथ्यामतं न कर्त्तव्यम् । टीकार्थ :- हे जीव ! जिस धर्म को करने से लक्ष्मी स्थिर होती है, रोग व मृत्यु क्षत्र को प्राप्त होते हैं, उस जिनधर्म को धारण क्यों नहीं करना चाहिये ? अर्थात् करना चाहिये। ऐसा जानकर मिथ्यामत न कर अर्थात् उसका अनादर मत कर । धम्मेण यसः कित्ती धम्मेण य होई तिहवणे सुखं । धम्मविहूणो मूढय दुक्खं किं किं ण पाविहसि ॥ ३६ ॥ टीका:- हे शिष्य । अत्र संसारे जीवस्य धर्मेण कृत्वा निर्मला कीर्तिर्यशश्च भवति । पुनः धर्मेण कृत्वा त्रिभुवनमध्ये महत्सुखं प्राप्यते । पुनः धर्मेण कृत्वा स्वर्ग - मोक्षादिकं सुखं प्राप्यते चतुर्गतिषु । टीकार्थ :- हे शिष्य । इस संसार में धर्म करने से जीव कीर्ति व यश को प्राप्त होता है। धर्म के कारण त्रिलोक में महासुख मिलता है। धर्म से स्वर्गमोक्ष की प्राप्ति होती है। चारों गतियों में सुख मिलता है । धम्मं करेहि पूयहि जिणवर थुइ करेड़ जिणचरणे । सच्च घरेहि हियए जं इच्छइ तं समावडए ।। ४५ ।। टीका:- हे जीव । यदि त्वं मनोवाञ्छित फलमिच्छसि तर्हि जिनधर्म निर्मलं कुरु | लोकमूढतां मुक्त्वा मिथ्यात्वं त्यक्त्वा देवाधिदेवं ज्ञात्वा जिनधर्म कुरु । पुनः जिनार्चनं कुरु । वित्तानुसार: जिनेन्द्रस्य गुणान् ज्ञात्वा जिनार्चनं कुरु । पुनः गद्य-पद्यात्मिकां स्तुतिं कुरु । छ ? जिनेन्द्रचरणे । सत्यवचनं जिनमार्ग स्वहृदये धरेहि धर । पुनः सम्यक्त्वेन सह व्दादशव्रतानि पालय । कस्मात् ? यतः इहामुत्र च भोगाः स्वयमेव विनायासेन त्वं प्राप्नोषि । टीकार्थ :- हे जीवा यदि तू मनोवांछित फल चाहता है तो निर्मल जिनधर्म धार ले । लोकमूढ़ता को छोड़कर, मिथ्यात्व को त्यागकर, देवाधिदेव को जानकर जिनधर्म कर। जिनार्चना कर । जिनेन्द्र के गुणों को धन के

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