Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal
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aatबीह संगासिया
(ढाल-छन्द) रे जीव रे नरभव पाया, कुल जाति विमल तूं आया। जो जैन धरम नहीं धारा. सब लाभ विधै संगहारा ।। १।। लरित तात हिये गह लीजे. जिलकथित धरम नित कीजे। भव दुःख सागर • तिरियो, सुख सों जौका ज्यू वरियो ।।१०।। अति लीन विषय हाक मारयो, भम मोहिज मोहित करियो। विधीना जब देये घुमरिया, तब नरक भूमि तूं परिया ।।११।। ये नर कर धरम अगाऊ, जबलों धन जौवन आयू । जबलौं नहीं रोम सतावे, तोहि काल न आवज पावे ।। १.२।। येह तेरे आसन जैना, जबलों तेरी दृष्टि फिरे ना। जबलों तेरी बुधि सवाई, कर धरम अगाऊरे भाई।। १३।। औस जल ज्यों जौवन जै हैं, करि धरम जरा पुनि एहैं। ज्यों बूढ़ा बलद थक हैं, कछु कारज न कर सके हैं ।। १४।। ये क्षण संयोग वियोगा क्षिण जीवन क्षण मृत रोगा। क्षण में धन यौवन जा हैं. केहि विधि जग में ज रहे हैं।। १ ।। अंबर घन जीतब जेहा, गज करण चपल धन येहा। तनु दर्पण छाया जानों, ये बात भले उर आनो ।। १६।। अहि जम लीजे नित आव, क्यों नहीं धरम सुनीजे । नयन तिमिर नित्य हान, आसन यौवन छीजे ।।१७।। कमला चल ये न पैंड, मुख ढांक परिवारा। देह थकै बहु पोष, क्यों न लखै संसारा ।।१८।। छिन नहीं छोडे काल, ज्यो पाताल सिधारा। यो मन मांहि विचार, जग संसार असारा ।।११।। गणसुर राखे तोहि, रारकै उदधि मथैया । तो उन छोड़े काल, दीप पतंग जु परिया ।।२०।। घर गढ़ सो मादान, मणि औषध सब यों ही।

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