Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 92
________________ ! द सर्वोह पॅचासिया (ढाल वीर जिणंद की) - तिहुं जग में सुर आदि दे जी, शिवसुख दुर्लभ सार । सुन्दरता मम भावना जी, सो दे धर्म अपार ।। रे भाई तूं अब धर्म संभारि ॥३३॥ थिरता जस सुख धर्म स्यों जी, पाव रतन भंडार धर्म बिना प्राणी लहै जी, दुःख नाना प्रकार | रे भाई तं अब धर्म संभारि ॥ ३४ ॥ ' ་ दान धरम तैं सुर लहै जी, नरक लहैं करि पाप । इह विधी जाणर क्यूं पडै जी, नरक विषै तूं आप ॥ रे भाई तूं अब धर्म संभारि ॥ ३७ ॥ धरम करत शोभा लहै जी, हय गय रथ सब साज । प्रासुक दान प्रभाव स्यों जी घर आवें मुनिराज ॥ रे भाई तूं अब धर्म संभारि ॥ ३६ ॥ नवल सुभग मन मोहना जी, पूजनीक जग मांहि । रूप मधुर वच धरम स्यों जी, दुख क्यों व्यापै तांहि ॥ रे भाई तूं अब धर्म संभारि ॥ ३७॥ परमारथ यह पंच है जी, मुनि को समता सार । विनय मूल विद्या तण जी, धरम दया सिरदार || रे भाई तूं अब धर्म संभारि ।। ३८ ।। फिर सुणि करुणा धरम स्यों जी, गुरु कहिये निरग्रन्थ । देव अठारह दोष बिजां जी, येह श्रद्धा शिव पंथ ॥ रे भाई तूं अब धर्म संभारि ॥३१॥ बिन धन घर शोभा नहीं जी, दान बिना धन जेह । जैसे विषयी तापसी जी, धरम दया बिन तेह || रे भाई तूं अब धर्म संभारि ||४०|| 73

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