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RANAसडीह पंचासिंया
(दोहा) भोंदूं धन हित अब करै, अघ नै धन नहीं होय। धरम करत धन पाइये, मन वच जाणो सोय ।। ४१ || मति जिय सोच किंचिनु, होनहार सो होई। जो अक्षर विधिना लखै, ताहि न मेटै कोई ।।४।। यह बकवात बहुत करो, पैठे सागर मांहि । शिखर चदै बसि सौभ के, अधिको पावे नांहि ।।४३।। रात दिवस चिंता चिता, मांहि जल मति जीव । जो दियो सो पाइयो, अधिको लहे न कदीव ।।४४|| लागि धरम जिन पूजिये, सांच कहों सब कोय। चित्त प्रभू चरन लगाइये, तो मनवांछित होय ।।४।। वे गुरु होवो मम संयमी, दैव जैन हो सार। साधरमी संगति मिलो, जबलों भव अवतार।।४६|| शिवमारग जिन भासियो, किंचित् जाणे कोय। अंत समाहिमरण करे, तो चउगई दुःख क्षय होय॥४७॥ घटि दोय सम्यक गुण गहै, जिनवाणी रुचि जास | सौ धन्य सो धनवान है, जग में जीवन तास १४८।। श्रद्धा हिरदै जो करै, पढ़े सुणे दे कान । पाप करम सब जासिकैं, पावें पद निर्वाण 189 ।। हित सो अर्थ बनाइयो, सुगरु बिहारीदास । सतरह सै अठावने बदि तेरस कातिक मास ।।५।। ब्जान वान जैनी बसै, बसे आगरे माही। आतम ज्ञानी बहु मिले, मूरख कोऊ नाहि ।।१।। क्षय उपशम बल में कह्यो, द्यानत अक्षर येह। देखि संबोधि पंचासिका, बुधजन शुद्ध करेह ।।७२।।
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