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मनोहयेगासिया--- भावार्थ :
धम्मस्य मूलं दया धर्म का मूल ढ़या है । अतएव जिस धर्म में दया । नहीं है वह धर्म कार्यकारी नहीं है।
संयम के दो भेद हैं - इन्द्रियसंयम व प्राणीसंयम । पाँच इन्द्रिय व मन । को वश में करना इन्द्रियसंयम है । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बनस्पतिकायिक व स जीवों की विराधना न करना प्राणीसंयम | है। दोनों प्रकार के संयम से रहित तप विधवा के श्रृंगार की भाँति निष्प्रयोजनीय है। वैभवसम्पन्न होकर भी जो दान नहीं देते उनका वैभव बकरी के गले में। लटके हुए स्तमों की तरह हैं।
आचार्यों ने कहा है कि जिस गृहरश के पास कोडी नहीं वह कौड़ी का है व जिस यति के पास कौडी भी है व कौड़ी के बराबर है। अर्थात् गृहस्थ धनहीन हो तो उससे क्या लाभ ? धन तो है, किन्तु उसका सदुपयोग नहीं है तो उस धन में और मिट्टी में क्या अन्तर है ? अर्थात कुछ भी नहीं है।
सज्जजचित्तवल्लभ के अनुवाद में मैंने स्पष्ट किया है कि - जिनके पास प्रचुरमात्रा में सम्पदा है. परन्तु उसका उपयोग धर्मकार्य और पात्रदान के लिए नहीं होता है, उनके पास धन का होना या नहीं होना समान ही है। पूर्वकृत् पुण्यकर्म का उदय होने पर धन का लाभ होता है। धन एक साधन है । उसके द्वारा पुण्य अथवा पाप का अर्जन किया जा सकता है । विषयभोगों के लिए व्यय हुआ धन पापों का सृजक है और धर्मकार्य तथा पात्रदान में लगा हुआ धन पुण्यरूपी कल्पवृक्ष की वृद्धि करता है। इस संसार में धन को प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। जिनके पास धज हो, उनमें दान की भावना उत्पन्न होना उससे भी कठिन है। दान करने की इच्छा हो और सत्पात्र का समागम हो जाये यह संयोग तो महाढुर्लभ है । जिन जीवों को ऐसे अवसर प्राप्त होते हैं और फिर भी वे दानधर्म में प्रवृत्ति न करें तो उनका धज व्यर्थ ही है।
धन का सदुपयोग दान के व्दारा होता है । श्रावकों के व्दारा दिया जाने वाला दान केवल दाता के ही नहीं, अपितु पात्र के भी धर्मसाधना में सहयोगी होता है क्योंकि शेष आवश्यकों के व्दारा केवल आवश्यकपालक का हित होता है परन्तु दान को प्राप्त करने के उपरान्त लोभादि कषायों की।