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Ho संबोह मंगसिया
यद्यपि धनार्थी अति तीव्र पाप करता है फिर भी यह जीव धन नहीं पाता । जो पूर्व भव में उपार्जित किये शुभाशुभ कर्म, उस कर्म से ही शुभाशुभ फल की प्राप्ति इस जीव को होती है। पूर्वभवोपार्जित पुण्यकर्म के उदय के बिना इस जीव को मनुष्य. व्यन्तर वा कोई देव शुभाशुभ फल नहीं दे सकता । अन्य कोई भी सुख नहीं देता है फिर भी इस जीव का स्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म क्या वहाँ जाता है ? ऐसा मानकर अज्ञानी जीव मिथ्यात्ववशाल कुदेवों में अनुरक्त होता है । पाखण्डीलोग ही ऐसा कहते हैं। शंका - क्या कहते हैं ? समाधान- तन्त्र-मन्त्रादिक से, औषधि-वशीकरण -कौटिल्यादिक से चण्डिका, शीतलादिक की पूजा से इष्टसिद्धि होती है - ऐसा वे असत्य कहते
भावार्थ:
जीव को पहले यह सिद्धान्त ध्यान में रख लेजा चाहिये कि
जो कुछ हमने शुभाशुभ कर्म उपार्जित किये हैं, उनके अनुसार ही फल | की प्राप्ति होती है। क्योंकि -
बोये पेड़ बबूल के आम कहाँ से होय। यदि दूसरा कोई फल देने लग जाये तो फिर स्वयं के किये हुए कर्म व्यर्थ हो जायेंगे।
इस सिद्धान्त से अनभिज्ञ मूढ़ात्मा, चण्डिका, शीतलादि देवियों की पूजा करने से अभिष्टसिद्धि होती है ऐसा मानते हैं। मन्त्र, तन्त्र, कौटिल्य
औषधि आदि का सहारा लेकर जीव धनवाज बनना चाहता है। नानाविध हिंसाजनक व्यापारों के द्वारा वह महापापों को उपार्जित करता है । वह मूद यह नहीं जानता कि वह मात्र धन की अभिलाषा का कर्ता है न कि धन का। धन की प्राप्ति उसके लिए संभव नहीं है । यदि शुभकर्म का उदय हो तो अनायास धन की प्राप्ति होगी ! अन्यथा चाहे जितने प्रयास कर ले, वे पत्थर पर बीज बोने के समान कार्य कर रहे हैं। शंका :- देवों में अणिमादि ऋद्धियाँ होती हैं। उनके व्दारा वे परोपकारादि कार्य कर सकते हैं। फिर वेधलादि नहीं दे सकते हैं ऐसा क्यों कहते हो ? समाधान :- देव ऋद्धियों के माध्यम से परोपकार करने में समर्थ होते हैं। परन्तु वे उन जीतों का हित नहीं कर सकते जिन जीवों का पुण्यकर्म का उदय