Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ Me संग्रौपचासिया न हो । जिन जीवों का पापकर्म उदय में होता है. उन जीवों का हित करने की | शक्ति किसी भी देवी या देवता में नहीं होती । परनिमित्त केवल बाहर से सहयोगी हो सकते हैं । बाह्यनिमित्त भी तभी कार्य कर सकते हैं, जब उणदाज और आभ्यन्तर कारण भी अनुकूल हो । इसलिए देवता धनादि नहीं दे सकते ऐसा कहा जाता है। शुभाशुभ फल जं जं विहियं जं जं सुविहं तं तं च पावए जीवो। अविहो पुणो विमूढय सविणे वि ण दंसणं देइ ।। ४३ ॥ | अन्वयार्थ :(जं जं) जो-जो (विहियं) बुरा (च) और (जं जं) जो-जो(सुविहं) अच्छा है (तं तं) वह-वह (जीवो) जीव (पावए) पाता है (विमूढय) हे मूढ ! (अविहो) विपरीत (पुणो) और (सविणे वि) स्वप्न में भी (ण) नहीं (दसणं) दिखाई (देह) देता है। | संस्कृत टीका : हे शिष्य ! अत्र संसारेऽनेन जीवेन पूर्वभवे यद्यत् समुपार्जितं कर्मणा विहितंनिर्मापितं च तत्तत् शुभाशुभं फलं प्राप्यते । इति मत्वा रे मूठ जीव ! यदि त्वया स्वोपार्जित सकाशात् किचिदीनं वृद्धं वा सुखं दुःखं न प्राप्यते तर्हि त्वं तृष्णाशाशादिभिर्मिथ्यात्वैः कृत्वा तीव्रपापकर्म वृमा बध्नाति । अपरम्, अरे जीव ! स्वोपार्जितमेव सुखं दुःखं संसारेऽयं संसारी जीवः प्राप्नोति विपरीतं रात्रौ स्वप्नेऽपि न पश्यति। टीकार्थ: हे शिष्य । इस संसार में इस जीव ने पूर्व भव में जो-जो कर्म उपार्जित लिये उस कर्म के शुभ व अशुभ फल को वह प्राप्त करता है । ऐसा जानकर हे मूढ जीव ! यदि तेरे द्वारा उपार्जित कर्म में हीज वा अधिक सुख दुःख प्राप्त नहीं होता, फिर भी तू तृष्णा, आशंकादि मिथ्यात्व के द्वारा ब्यर्थ ही तीव्र पापकर्म बांधता है । अरे जीव ! जिन के द्वारा उपार्जित सुख त दुख ही इस संसार में यह जीव प्राप्त करता है ! विपरीतरुप फल रात्रि के स्वप्न में भी नहीं देखता।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98