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Free संबोलपंचामिया पलायन कर जाते हैं।
जब दर्शनमात्र का यह फल है तो पूजा और रस्तुति आदि का क्या फल | होगा? जिजदेत अचिन्त्य महिमावान हैं. ऐसा जानकर मुमुक्षु को चाहिये कि । वह इन्द्रियसुखों की तुच्छाभिलाषा को छोडकर जिनाचना करें , जिससे अन्नायास ही सब कुछ मिल जायेगा। बात तो सच भी है कि वृक्ष के पास जाकर छाया क्या मांगना ? वह तो स्वयमेव ही मिल जायेगी । अतः प्रतिदिन । जिनदर्शन और जिजपूजन करना चाहिये ।
मेरी भावना संपज्जइ सामि जिणं संजमसहियं च होउ गुरु णिच्चं । साहम्मि जणसणेहो भवि-भवि मज्झं सयं पडिउ॥४७॥ अन्वयार्थ :(अवि-भवि) भव - अव में (मज्झं) मुझे (सयं) स्वयं (जिणं) जिनेन्द्र (सामि) स्वामी (संपज्जा) मिले (संजमसहियं) संयमसहित (गुरु) गुरु (च) और (साहम्मि) साधर्मा (जण) जन का (णिस्चं) नित्य (सणेहो) स्नेह (पडिउ) प्राप्त (होउ) होओ। संस्कृत टीका :___कविः जिनेन्द्रानो कथयति - हे स्वामिन् ! मम जिनेन्द्ररय गुणानां संपद्भवतु। पुनः संयमेन सह सद्गुरोः सङ्गमो भवतु । पुनः सधर्मणा सह धर्मानुरागेण स्नेहो भवतु । क्व ? इहामुत्र भवे-भवे भवतु। टीकार्थ :
कवि जिनेन्द्र भगवान के आगे कहता है, हे स्वामिन् ! मुझे जिनेन्द्र के गुणों की प्राप्ति हो । संयमसहित सङ्गुरु का संगम हो, सहधर्मियों के साथ धर्माजुराग से स्नेह हो। शंका - तब ? समाधान - इहलोक में और परलोक में अर्थात् भव-भव में प्राप्त हो।