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सयौहरूबंगासिया है ? दुर्जन का स्वभाव ऐसा ही होता है।
पुनः शरीर के दर्ण और आभूषणादिक भी घरभव में जीव के साथ नहीं जाते। पुनः सब कुटुम्बीजज भी पुद्गल के साथ नहीं दिखते।
रे जीव ! इस नजन्म को तू इन्द्र के समान क्यों नहीं जानता है ? भावार्थ:
इस गाथा में एकत्वभावना का वर्णन किया गया है।
यह जीव अनादिकाल से पर को शरण मानकर निज से दूरानुदूर जा रहा है। के संग्रहाय दानसन्न हो रह है कि उसे अपना परिचय ही याद नहीं रह पाया है। मेरे संकटकाल में मेरे परिजन और मेरा वैभव ही मेरे लिए शरणभूत है ऐसी भमपूर्ण मान्यता को मन में धारण कर जीव उन्हीं के संकलन में संलग्न है।
परभव में जीव के साथ कौन-कौन जाता है ? कोई भी नहीं। कवि मंगतराय जी ने कितना स्पष्ट लिखा है कि
कमला चलत न पैंड जाय मरघट तक परिवारा। . अपने अपने सुख को रोवें पिता पुत्र दारा॥
(बारह भावना-१) अर्थात् :- जब यह शरीर नष्ट हो जाता है तब लक्ष्मी जहाँ रखी थी, वहीं रह | जाती है । वह एक कदम भी आगे नहीं आती। परिवार स्मशान तक ही साथ | निभाता है। पिता, पुत्र और स्त्री आदि परिजन अपने-अपने सुख के लिए ही | रूदन किया करते हैं।
ग्रन्थकर्ता उत्प्रेक्षा करते हैं कि शरीर अग्नि में भस्म हो जाने को तैयार रहता है किन्तु वह जीव के साथ नहीं जाता। वह कहता है कि मैं अग्नि में भस्म होने के लिए तैयार हूँ. मैं लकड़ियों का भक्षण करने के लिए तैयार हूँ परन्तु जीव के साथ परभव में नहीं चलूंगा। जिन आभूषणों को प्राणों से भी अधिक प्यार करते हैं, वे भी साथ नहीं जाते । जीव अन्यभव में अकेला ही गमन करता है । उसके साथ उसके द्वारा उपार्जित किये गये शुभाशुभ कर्म ही जाते हैं।
इस ज्वलन्त सत्य का परिचय प्राप्त करके प्रत्येक जीव को ममत्व का परिहार करना चाहिये ।