Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 56
________________ Noteसनोहद्यासिया विराग का भाव या कर्म वैराग्य कहलाता है। वैराग्य सम्वदि का भूषा है। राज्य सम्यक् चारित्र का परिचायक है। वैराग्य साधना का प्राण है। वैराग्य आत्मान्वेषण का प्रशस्त महाराजमार्ग है । वैराग्य के बिना जीव संसार से पार नहीं हो सकता । यही एक ऐसी नाव है। कि जो जीव के समस्त गुणरूपी रत्नों को मोक्ष के महल तक पहुँचाती है। अतः जीवों को वैराग्य की परम शरण ग्रहण करनी चाहिये। प्रमादी की निन्दा उच्छिण्णा किं णु जरा णट्ठा रोगा पलाइया मिच्चू । येण य मूढ णिचित्तो अत्यहि णिच्चं समासितो विसयं॥२८॥ अन्वयार्थ :(मूळ) हे मूर्ख ! (किं णु) क्या तेरा (जरा) बुढापा (उच्छिण्णा) नष्ट हुआ ? | (रोगा) रोग (णहा) नष्ट हुये ? (मिच्चू ) मृत्यु (पलाइया) पलायन कर गयी ? (येण य) जिससे तू (णिचित्तो) निश्चिन्त होकर (णिच) सतत (अत्थति) द्रव्यों में और (विसयं) विषयों में (समासितो) रम रहा है। संस्कृत टीका :-- रे जीव ! यावत्वं जरया न यस्तः यावत्तव समीपे जरा नागता तावत् सर्वे | रोगमृत्यवादयो नाशं गताः सन्ति । तस्मात्कारणात्वं रे जीव ! निश्चिन्तोऽभवः।। त्वं यावत्जरया न वेष्टितस्तावत्पद्येन्द्रियाणां विषयान्मुक्त्वा स्वात्मनः कार्य कर्तव्यम्। टीकार्थ : हे जीव ! जबतक तुम जरा से शस्त नहीं हो जाते हो. तुम्हारे समीप में जबतक बुढापा नहीं आता तबतक सब रोग व मृत्यु आदि नाश को प्राप्त होते हैं। (तेरे पास नहीं आती) उसकारण से हे जीव । निश्चिन्त मत हो । जबतक बुढापा तुम्हें न पकड़ ले, तब तक तुम पंचेन्द्रियों के विषयों को छोड़कर आत्मकल्याण का कार्य कर लो। भावार्थ: अभी बुढापा नहीं आया, रोग नहीं हुये, तो मृत्यु भी नहीं होगी ऐसी

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