Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 58
________________ संग्रह पंचासिया रोगरूपी महामत्स्य इस संसार सागर में बसते हैं, बुढापे का भयंकर तूफान | इस सागर में प्रतिक्षण आता है, भोगों के भंवर में उलझा हुआ यह मूद चेतन अनादिकाल से अनन्त दुःखों को सदैव सहन करता आ रहा है। ग्रन्थकर्त्ता कवि कहते हैं कि हे भव्य तुम विषयासक्ति को तज कर स्वानुभूति की उपलब्धि करने हेतु जैनधर्म का आचरण करो। जैनधर्म का आचरण ही तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति कराने में समर्थ है। जैनधर्म की आवश्यकता जइ लच्छी होइ थिरं पुण रोगा ण खिज्जई मिच्चू । तो जिणधम्मं कीरइ अणादरं णेव कायव्वं ॥ ३० ॥ अन्वयार्थ : (ज) जिससे ( लच्छी) लक्ष्मी (थिरं) स्थिर (होइ ) होती हैं (पुण) और (रोगा) रोग (ण) नहीं होते (मिच्चू) मृत्यु (खिज्जई) नष्ट होती है (तो) उस ( जिणधम्मं ) जैनधर्म को (कीरह) आचरण करो (अणादरं ) अनादर (ब) नहीं (कायव्वं ) करना चाहिये । संस्कृत टीका : हे जीव ! येन धर्मेण कृत्वा लक्ष्मीः स्थिरा भवति, पुनः रोगाः मृत्युश्च क्षयं यान्ति तर्हि कस्माज्जिन धर्मः न क्रियते ? अपितु क्रियते । इति मत्वा मिथ्यामतं न कर्तव्यम् । टीकार्थ : हे जीव ! जिस धर्म के करने से लक्ष्मी स्थिर होती है. रोग व मृत्यु क्षय को प्राप्त होते हैं. उस जिनधर्म को धारण क्यों नहीं करना चाहिये ? अर्थात् करना चाहिये। ऐसा जानकर तुम मिथ्यामत को धारण मत करो । भावार्थ : विधिवत् धर्म को धारण करने से लौकिक और पारलौकिक सुख प्राप्त होते हैं। कहा भी है कि धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण | धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यंच समान ॥ 39

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