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Kartaसंडोह घंचासिया |३- रत्नत्रय को धर्म कहते हैं। |४- जीवों की रक्षा को धर्म कहते हैं।
संक्षेपतः जो-जो आचरण आत्मविशुदि में कारण बनते हैं. वे-वे रूब || धर्मातरण हैं ऐसा जानना चाहिये ।
धर्म, गुरु और देव का लक्षण सो धम्मो जत्थ दया सो जोई जो ण पडइ संसारे ।
सो देवो जरमरणहरो पणासणो सयलदुक्खाणं ॥४०॥ | अन्वयार्थ :(जत्थ) जहाँ (दया) दया है (सो) वह (धम्मो) धर्म है । (सो) वह (जोई) योगी है (जो) जो (संसारे) संसार में (पडह) पड़ता (ण) नहीं है। (सो)। वह (देवो) देव है जो (जरमरणहरो) जरा व मरण को हरने वाला होता है। और (सयलबुवस्खाणं) जो सकल दुःखों का (पणासणो) विनाश करता है। संस्कृत टीका :| हे शिष्य ! पुनरत्र संसारे कीडशो धर्मः ? भगवाजाह - यत्र पदकायजीवानां | रक्षणं क्रियते स धर्मो भग्यो । दया क्रियते स धर्मः, पुनः योगीश्वरः कः कथ्यते ?
यो मुनिः स्वात्मपरयोः भेदं ज्ञात्वा, तत्वादिकं भेदं ज्ञात्वा, निश्चयरत्नत्रयं ध्यात्या, | पुनरपि संसारे न पतति । सांसारिक भोगवाञ्छां न करोति स योगीश्वरः कथ्यते। | पुनः देवः कीदृशः कथ्यते ? यो देवः जन्मजरामरणं हरति स देवः, पुनः |
सकलदुःखविनाशको देवः कथ्यते । अपरश्च कुदेवः कथ्यते। | टीकार्थ :
हे शिष्य ! इस संसार में वह धर्म कैसा है ? भगवान कहते हैं कि - जहाँ | षट्काय जीवों का रक्षण किया जाता है, वह धर्म कहा जाता है । दया करना धर्म है।
योगीश्वर किसे कहते हैं ? ओ मुनि स्व-पर का भेद जानकर, तत्त्वादिक का भेद जानकर निश्चयरत्नत्रय को ध्याकर पुनः संसार में नहीं आले हैं । सांसारिक भोगों की जिजके तांडा नहीं हैं, वे मुनिराज योगीश्वर