Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 64
________________ Hoसंबोहवासिया परमामृत है । धर्म को करने के फलस्वरूप नर से जारायण अथवा तीतर से | तीर्थकर बजने की पात्रता प्राप्त होती है । संसार में ऐसा कोई सुख्ख नहीं है कि | जिसे धर्म न दे सकता हो। अतएव सतत धर्म में मन लगाना चाहिये। अज्ञानी को सम्बोधन धम्मेण होइ सगं पावेण य होइ णरयवासम्मि। जाणतो वि अयाणय णरए मा खिपहि अप्पाणं ॥३५।। अन्वयार्थ :(अयाणय) अज्ञानी (धम्मेण) धर्म से (सग्ग) स्वर्ग में वास (होह) होता है | (पावेण य) पाप से (णरयवासम्मि) नरक में वास होता है। (जाणंती वि) ऐसा जानकर भी (अप्पाणं) आत्मा को (अपने को) (णरए) नरक में (मा)। मत (खिपहि) डाल। | संस्कृत टीका : हे जीव ! धर्मेण कृत्वा स्वर्गफलं प्राप्यते, पुनः पापेन कृत्वा नरकादिक दुःखं प्राप्यते, पुनः त्रिधा रत्नत्रयेः कृत्वा स्वात्मचिन्तनात्परस्पसपाभावात् संकल्पविकल्परहितमभयामरमोक्षपदं प्राप्यते । रे मूठ जीव ! अस्य संसारस्य स्वरूपमनित्यं ज्ञात्वा निजात्मानं नरके मा क्षियतु । कस्मात् ? विषय | मोहलाम्पट्यात्। टीकार्थ : हे जीव ! धर्म करने से स्वर्ग फल की प्राप्ति होती है। घाप करने से जरकादि दुःख की प्राप्ति होती है । रत्नत्रय धारण करने से, स्वात्मचिन्तन के कारण, परस्वरूप का अभाव होने से, संकल्प-विकल्प रहित अक्षय-अमर मोक्षपद प्राप्त होता है । रे भूल जीव ! इस संसार के अनित्य स्वरूप को जानकर आत्मा को नरक में मत डाल । कैसे ? विषयमोह की लम्पटता से। भावार्थ : परिणाम तीन प्रकार के हैं - शुभ, अशुभ और शुद्ध । शुभ परिणामों से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, अशुभ परिणामों से नरकादि की महाभयंकर वेदनायें

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