Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 67
________________ Reaनोपशासिया उक्तध अदत्तदोषेण भवेद्दरिद्रो, दारिद्रयदोषेण करोति पापम्। पापादवश्यं नरके पतन्ति, पुनर्दरिद्राः पुनरेव पापाः॥ तथा चोक्तम् - चौरेभ्यो न भयं न दण्डपतनं त्रासो न पृथ्वीपतेनिःशङ्ख शयनं निशापि गमनं दुर्गेषु मार्गेषु च। दारिद्रयं बहुसौख्यकारि पुरुषा दुःखद्वयं स्यात्परे ह्ययाताः स्वजनाश्च यान्ति विमुखा मुन्ति मित्राण्यपि ॥ अन्यचक्तिम् - मधुपाने कुतः शौचं मांसभक्षी कुतोदया। कामार्थिनां कुतो लज्जा धनहीने कुतः क्रिया ॥ | टीकार्थ: अहो जीव ! इस संसार में धर्म करने से जीव को प्रचुर जय, लक्ष्मी, | चक्रवर्ती आदि की विभूति प्राप्त होती है । जिनधर्म से उत्तम घोड़े, हाथियों की प्राप्ति होती है ! जो नर-नारी धर्म से हीन हैं, वे दूसरों के घर में नौकरी करते हैं । जो पंच परमेष्ठियों के गुणों से (रमरण से) रहित हैं और जो रत्नत्रय से रहित हैं, वे नर मूलधन से रहित होकर गाँव-गाँव में शीत, उष्ण व वर्षादि के ढुःखों को भोगते हैं। माथे पर रखे हुए अतिभार से भवनग्रीव होते हैं । नीच लोगों के साथ व्यापार करके सूर्यास्त के बाद घर आकर शंकादि से रहित अति कष्ट से अपने स्त्री, पुत्र का दुर्भरता से उदर पूर्ण करते हैं। जीवनपर्यन्त रोग सहित होते हैं। अतिप्रिय वस्त्रादिक के वियोग को सहते हैं । लाखों छिद्रों से युक्त टूटी-फूटी झोपड़ी में रहते हैं। उनके पास उत्तम बर्तन नहीं होते हैं। लाखों छिद्रों वाला वस्त्र उनके पास होता है । वे मानव जहाँ भी जाते हैं, वहाँ दुःखों को ही पाते हैं। शंका - उन्हें जिनधर्म की प्राप्ति कब होगी ? समाधाम - नहीं होगी।

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