________________
संमोह पंद्यानिया धर्म से मनुष्य को इसलोक में चक्रवर्ती, नारायण और बलभदाद्धि की विभूति प्राप्त होती है तो परलोक में इन्द्र और अहमिन्द्रादिक की विभूति प्राप्त होती है । इस तरह धर्म असुरों का दाता है ! के कारण ही जीव शाश्वत सुख के आलयस्वरुप मोक्ष को प्राप्त करता है। अतएव धर्म का सतत आदर करना चाहिये । जो जीव धर्म करता है, उसका ही जीवन सार्थक बन जाता है। धर्म के बिना मनुष्ट्य तिरांच के समान है।
धर्म को धारण करने की प्रेरणा जइ इच्छइ परलोयं मिल्लहिं मोहं च चयहिं परकोह। विसयसुहं वज्जिजिहं अणुहवहि जिणोइयं धम्मं ॥३१|| अन्वयार्थ :(ज) यदि (परलोयं) परलोक (मिल्लहि) मिलने की (इच्छइ) इच्छा करते हो (तो) (मोहं) मोह (च) और (परकोह) पर के प्रति क्रोध (चयहि) छोड़ को (विषयसुह) विषयसुख का (वज्जिजिह) त्याग कर (जिणोइयं) जिनेन्द्र कथित (धम्म) धर्म का (अणुहवठि) अनुभव करो। संस्कृत टीका :
हे जीव ! यदि त्वं परलोकं मोक्षपदमिच्छसि तहि त्वं मोहान्धकार दूरी कुरु । पुनः पञ्चेन्द्रियाणां सप्तविंशतिविषयाणां सुखं मुछ। पुनः पञ्चविध मिध्यात्वं मुक्त्वा जिनधर्म कुछ। टीकार्थः
हे जीव ! यदि तुम परलोक अर्थात् मोक्षपद प्राप्त करने की इच्छा करते हो तो तुम मोहान्धकार को दूर करो, पंचेन्द्रियों के सत्ताईस विषयों को छोड़ दो । पाँच प्रकार के मिथ्यात्व को छोड़कर जैनधर्म को धारण करो। भावार्थ:
आत्मा के बाह्य चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं । इन्द्रियों के पाँच भेद हैं। स्पर्शनेन्द्रिय के आठ, रसनेन्द्रिय के पाँच, धाणेन्द्रिय के दो, चक्षुरिन्द्रिय के पाँच और कर्णेन्द्रिय के सात इन सबको मिलाने पर पाँच इन्द्रियों के सत्ताईस | विषय होते हैं । तत्त्व के प्रति अश्रद्धाज को मिथ्यात्व कहते हैं । मिथ्यात्व के