Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ संबोर पंचासिया पाने के कारण से उत्पन्न हुई विरह की वेदना से दुःख उठा रहे हैं। कोई लोग अपने इष्ट का वियोग हो जाने से दुःखी हैं। अर्थात् सारा संसार ही दुःखी है। इस संसार में कोई भी जीव सुखी नहीं है। सुखी होने का एकमात्र उपाय आत्मस्वभावाभिमुख होकर प्रवृत्ति करना है। संसार के दुःख कस्स वि कुरुवकायं कस्स वि तियपुत्त णत्थि गेहम्मि । कस्स वितणु पीरमई संसारे रे सुहं कत्तो ॥ २५ ॥ अन्वयार्थ : (कस्स वि) किसी की (कुरुवकार्य ) काया कुरूप हैं। (कस्स वि) किसी के (गेहम्मि) घर में ( तिय ) स्त्री (पुत्त) पुत्र ( णत्थि ) नहीं है। (कस्स वि) किसी का (तणु) शरीर (पीरमई) पीड़ित हैं । (२) अरे (संसारे) संसार में (सुहं) सुख ( कत्ती ) कहाँ है ? कहीं भी नहीं । ! संस्कृत टीका : | हे शिष्य ! कस्यचित् पुरुषस्य कायः कुरूपः । पुनः कस्यचित् पुरुषस्य स्त्री नास्ति । पुनः कस्यचिद्गृहे पुत्रो नास्ति । पुनः कस्यचिद्गृहे स्त्रीपुत्रद्वयमपि | नास्ति । पुनः कश्चित्पुरुषः तनुरोगात् पीडितोऽस्ति I I हे भव्यपुरुष ! अत्र संसारे सुखं कुत्रचिन्नास्ति । तेन त्वं जिनधर्म कुरु येन सुखं भवति । टीकार्थ : T हे शिष्य । किसी पुरुष की काया कुरूप है। किसी पुरुष को स्त्री नहीं है। किसी के घर में पुत्र नहीं है। किसी के घर में स्त्री व पुत्र दोनों ही नहीं हैं। पुरुष शरीर में होने वाले रोगों से दःखी है । कोई हे भव्यपुरुष ! इस संसार में सुख कहीं भी नहीं है। अतएव तुम जिनधर्म को धारण करो, जिससे तुम्हें सुख होगा। भावार्थ : इस संसार में कोई भी जीव अपने आप में पूर्ण सुखी नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति दुःखी है। कोई तन से तो कोई मन से किसी के दुःख कुरूप काया के 32

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98