Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 53
________________ टीकार्थ हे शिष्य । इस संसार के दुःख कैसे हैं ? बुढापे के कारण यह जीव हाथ में लाठी लेकर अतिकष्ट से गमन करता है। ऐसे दुःखों का रे मूढ़ ! तूने अनन्तबार भोगा है, उन दुःखों को तूने क्यों भुला दिया ? रे मूढ ! तू विषय मोह के वश होकर परद्रव्य से रति क्यों करता है ? स्वात्मचिंतन क्यों नहीं करता ? संतोह पंचासिया कति न कति न वारानत्र जातोऽस्मि कीटः । नियतमिह न हि स्यादस्ति सौख्यं च दुःखं, जगति तरलरूपे किं मुदा किं शुचा वा ॥ कहा है अङ्गं गलितं पलितं वृद्ध अर्थ :- शरीर गल गया, सिर पर सफेदी छा गयी, मुख में दांत नहीं रहे, होकर लाठी लेकर चलने लगा, फिर भी आशा उसका पिछा नहीं छोड़ती । अर्थ : : ——— और भी कहा हैनानायोनिं व्रजित्वा अर्थ :अनेक योनियों में घूमकर, बहुविध दुःख व जन्म-मरण से युक्त कष्ट को भोगकर तथा चतुर्गतिरूप इस संसार में बहुत कालपर्यन्त घूमकर चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न होकर, खगचर, जलचर, स्थलचर परस्पर का भाषण कर रहे हैं। किसीतरह तुझे मानव जन्म मिला है फिर भी तू विषयों की इच्छा करता है । तप क्यों नहीं करता ? आगे और कहते हैं कि - कति न कति न वारान् कितनी - कितनीबार मैं ऐश्वर्यमान भूपति हुआ हूँ ? कितनी कितनी बार मैं कीट हुआ हूँ ? इस अस्थिर संसार में सुख दुःख का कोई निश्चय नहीं है, इसलिए मुझे सुख में आनन्द एवं दुःख में रुदन करने का कोई प्रयोजन नहीं है । 34 -

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