Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 45
________________ * संयौह अंचामिया दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार। मरती विरियाँ जीव को, कोई न राखन हार ।। मन्त्रतत्रादि मृत्यु से नहीं बचा सकते णउ मंते णउ तंते ओसह मणि कणयभूमिगोदाणं । णो जीवहसि अयाणय जं जाणिहि तं कुणि जासू ॥२१॥ | अन्वयार्थ :(अयाणय) हे अशाजी ! (मंते) मन्त्र से (तंते) तन्त्र से (ओसह) औषध (मणि) मणि (कणय) स्वर्ण (भूमि) भूमि और (गोदाणं) गोदान से (णो)। नहीं (जीवहसि) जी सकेका (जं) ऐसा (जाणिहि) जामकर (जासू) जिस कार्य से छुटेगा (तं) उम्प कार्य को त कुणि) कर। संस्कृत टीका : हे शिष्य ! अत्र संसारे जीवोऽयं कालभयवशान्मन्नतज्वादिभिः न रक्ष्यते। । पुनरौषधमपि न रक्षति । पुनः सुवर्णदानं, गोदानं, भूमिदान, वस्त्रदानमित्यादिकेषु प्रचुरदानेषु दत्तेष्वपि न कोऽपि जीवमिमं यममुखाद रक्षति । तेषु दत्तेष्वपि जीवो न जीवतीति भावः। तत्रोक्तम् - न मन्त्रमौषधं-तन्त्रं न माताभ्रातरौ पिता। न रक्षति कालमुखात् यत्कृतं तद्धि भुज्यते ॥ [ टीकार्थ : हे शिष्य ! इस संसार में काल के भय से इस जीव की रक्षा मन्त्रतत्रादिक भी नहीं करते, औषधियाँ भी इसकी रक्षा नहीं करतीं । पुनः स्वर्णद्वान, गोदान, भूमिदान, वस्त्रदान इत्याद्धिक प्रचुर दान करने से भी टाम के मुख से कोई बच्चा नहीं सकता। दान देकर भी जीव जीवित नहीं रहता, यह इस गाथा का भाव है। कहा भी है - 26

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