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संजोहावासिया टीकार्थ :
हे जीव | इस संसार में काल के भय से जीव का रक्षण सुरसमूह भी नहीं | | कर सकता, देवेन्द्र भी नहीं कर सकता, ब्रह्मा-नारायण भी नहीं कर सकते,
चन्द्र-सूर्य भी नहीं कर सकते, चण्डिका क्षेत्रपालादि, कुलदेवी-देवता भी | नहीं कर सकते । पुनः स्वजन, श्वसुरपक्ष के लोग रक्षण करने में समर्थ नहीं हैं । अधिक क्या ? अन्य कोई भी इसकी रक्षा नहीं कर सकते । यदि वे इस जीव को काल से बचा सकते थे तो वे फिर स्वयं अपना रक्षण क्यों नहीं कर लेते? इसकारण से इस जीव को काल से कोई नहीं बचा सकता। कदाचित् यदि इस भय से जीव असंख्य दीपान्तरों में जावे तो भी उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता है। कहा भी है -
पुत्रा द्वारा नराणां --- अर्थात् :
पुत्र, स्त्री, स्वजन, बन्धुवर्ग, मित्र, माता, पिता, भाई, श्वसुरपक्षीय लोग इस जीव को मरते समय छोड देते हैं। चाहे भव्य भोगों से युक्त हो, विद्या से सहित हो, क्षमा से परिपूर्ण हो, बहुगुणों का भण्डार हो, यौवन के दर्प से आपूरित हो, मरण के समय में कोई सहायक नहीं होता है। एक धर्म ही मृत्यु के बाद जीव के साथ जाता है । वहीं एक सहायक है।
और भी कहा है -
आदित्यस्य गतागतैरहरहं --- अर्थात् :
सूर्य के गमनागमन से नित्य आयु का क्षय हो रहा है। विविध व्यापार में रत होने से इस जीव को यह भी मालूम नहीं पड़ता कि कितना काल व्यतीत हो गया है ? जन्म. जरा, मरण से ग्रस्त जीवों को देखकर उसे भय उत्पन्न होता नहीं है । लगता है कि यह जग मोहरूपी मदिरा को पीकर के उन्मत्त हो रहा है। भावार्थ :
मरते समय इस जीव को कोई नहीं बचा सकता। लिखा भी है -