Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 35
________________ संबीर पंचालिया reat ___ पुनः धर्म का आदर करने की प्रेरणा जाम ण पडिखलई गई जाम ण दूकेइ अक्खणं तिमिरं । जाम ण बुद्धि विणासइ ता धम्मे आयरं कुणहि ॥१३॥ अन्वयार्थ :(जाम) जबतक (गई) गति (पडिखलई) नहीं नष्ट होती (जाम) जबतक (अवखणं) आँखों को (तिमिर) अन्धकार (ण ठूके इ) नहीं व्याप्त करता (बुद्धि) बुद्धि का (विणासह) विनाश (ण) नहीं होता तब्बतक (धम्मे) धर्म का (आयरं) आचरण (कुणहि) कर। संस्कृत टीका : हे जीव यावत्तव शरीरगतिर्न भवना । पुनः यावत्तव नेत्रयोः विषये तिमिराणि न ढोकरेन् । पुनः यावत्तव बुद्धिः विकलतां न याति । तावत्यालपर्यन्तं त्वया जिनधर्मोपर्यातरः हि निश्चयेन कर्नाः । टीकार्थ : हे जीव । जबतक तेरा शरीर जष्ट नहीं होता, पुनः जबतक तेरे नेत्र विषयान्धकार से बन्द नहीं हो जाते, पुनः जबतक तेरी बुद्धि विकलता को प्राप्त नहीं होती, तबतक तेरे द्वारा जैनधर्म का आदर किया जाना चाहिये, यही तेरा निश्चय से कर्तव्य है। भावार्थ : कुछ बहिरात्मा जीवों का यह मत होता है कि जबतक यौवनलक्ष्मी कायम है तबतक भोगादिकों का सौख्यलाभ प्राप्त करना चाहिये । जब वृद्धावस्था आयेगी तब धर्म का अनुष्ठान करना उचित है । ऐसे शरीरवादियों के मत का खण्डन करते हुए कान्यकर्ता ने इस गाथा के माध्यम से यौवनावस्था में ही धर्म करने की प्रेरणा दी है। कवि कहते हैं कि वृद्धावस्था का आगमन इस जीवन में होगा ही ऐसा कोई नियत नहीं है । अतः जबतक शरीर की अवस्थिति है, नेत्र अपना कार्य करने में पूर्ण सक्षम हैं, बुद्धि अविकल है, तबतक इस जीव को धर्माचरण करना चाहिये । यही प्रत्येक जीव का परम कर्तव्य है ।

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