Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 34
________________ संतोह प्लासिया धर्म का आदर करो जाम ण दूकइ मरणं जाम ण वियलेइ जोव्वणं लच्छी । जाम ण धिप्पइ रोई ता धम्मे आयरं कुणहि ॥ १२॥ अन्वयार्थ : (जाम) जबतक (मरणं) मरण (ण) नहीं (खूकड) प्राप्त होता है (जोव्वणं) यौवनरूपी ( लच्छी) लक्ष्मी (ण वियलेइ) नष्ट नहीं होती (रोई) रोग ( धिप्पड़ ) घेर नहीं लेते (ता) तबतक (धम्मे) धर्म का (आयरं ) आचरण (कुणहि) कर । संस्कृत टीका : हे जीव ! यावद् भवतः भरणं न ढौकते । पुनः यावद्यौवनं लक्ष्मीः विलयं न t पुन: यावत्तीव्ररोगैः : न ग्रस्तः, तावत्कालपर्यन्तं जिनधर्मोपरि त्वयादरः याति कर्तव्यः : । टीकार्थ : हे जीव ! मरण जबतक आपको नहीं देखता है, पुनः यौवनरूपी लक्ष्मी जबतक नष्ट नहीं हो जाती तथा जबतक आप रोगों से ग्रस्त नहीं हो जाते तबतक आपको जैनधर्म का आचरण करना चाहिये । भावार्थ: ! आयु का कोई भरोसा नहीं है। वह कभी भी नष्ट हो सकती है। पानी का बुलबुला और मनुष्य की आयु कब अष्ट हो जायेगी ? किसीको भी पता नहीं है। अतएव जबतक जीवन हैं, मनुष्य को प्रत्येक क्षण का उपयोग निज कल्याण में कर लेना चाहिये । यौवन पहाड़ी पर बहने वाला ऐसा झरना है कि उसका पतन अवश्यंभावी है। वह हर क्षण बुढ़ापे का अवलोकन कर रहा है। शरीर रोगों का धर हैं। इस शरीर में कुल मिलाकर पाँच करोड अडसठ लाख निन्यानवें हजार पाँच सौ चौरासी (४६८१९५८४) रोग होते हैं। अतः कभी भी रोंगों की उत्पत्ति हो सकती हैं। जबतक अवसर है तबतक धर्माचरण करके स्वकल्याण करना यही भव्यजीवों का कर्त्तव्य है । 15

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