Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 11
________________ संमोह पंचासिया चिंतेहि मूड णिच्चं दप्पण छायव्व पीमाणं ।। १६ ।। इसमें लक्ष्मी को हाथी के समान, जीवितव्य को मेघपटल के समान तथा प्रियजनों का प्रेम दर्पण के प्रतिदिग्व के समान बताता है। ऐसे और भी दृष्टान्त इस ग्रन्थ में दिये गये हैं । विषय का पुनरावर्तन एक ही विषय को ग्रन्थ में कई बार दुहराया गया है। जैसे - ण वियलेइ जोव्वणं लच्छी (गाथा १२) अर्थ :- जबतक बौवन लक्ष्मी विगलित (नष्ट) नहीं होती । जर ण धिपई जाम | (गाथा १४) अर्थ :- जबतक बुढ़ापा नहीं आता । जोव्वणलच्छी खणेण वियलेइ । ( गाथा १५ ) अर्थ :- यौवन लक्ष्मी क्षण में नष्ट होगी। णिच्चं जोव्वण विगलइ | ( गाथा १७) अर्थ:- हमेशा यौवन नष्ट हो रहा है । हुआ इसीतरह गाथा ३ में इन्द्रसम जन्मप्राप्तम् इन्द्र के समान जन्म प्राप्त है। इन्द्रसम्भव सरूपं नृजन्म ( गाथा १८) इन्द्र के स्वरूप के समान नरजन्म पाया है। किन्तु यह उपदेश ग्रन्थ है तथा उपदेशे पुनरुक्ति दोषो नास्ति इसकारण पुनरुक्ति क्षम्य है । भाषा शैली भाषा अति सरल है। जिस शिष्य का जैनागम में प्रारम्भिक प्रवेश है ऐसा व्यक्ति सहज ही इसे रामझ सकता है । यहाँतक कि संस्कृत से अनभिज्ञ व्यक्ति भी टीका से अर्थ समझ सकता है । यथा : जड़ लच्छी होइ थिरं पुण रोगा ण खिज्जई मिच्चू । K

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