Book Title: Samboha Panchasiya
Author(s): Gautam Kavi
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 22
________________ संमोह संग्रसिया। प्रतिज्ञा जइ अक्खरं ण जाणामि णो जाणामि छंदलक्खणंकव्वं । तहवि हु असारमइणा संबोहपंचासिया भणिया ||२॥ अन्वयार्थ: (ज) यद्यपि मैं (अवखरं ) अक्षरों को (ण जाणामि) नहीं जानता हूँ। (छंद) छन्द (लक्खणं) लक्षण (कव्वं ) काव्य को (णी जाणामि) नहीं जानता हूँ । (तहवि हु) तथापि (असारमइणा) अल्पबुद्धि के द्वारा मैंने (संबोह पंचासिया) सम्बोध पंचासिका (भणिया) कही है। संस्कृत टीका : कविः कथयति किम् ? अहमक्षरं न जानामि च पुनः छन्दो व्याकरणकाव्यतकलिङ्गारादि न जानामि । तथाप्यहं तुच्छबुद्धया कृत्वा सम्बोध पञ्चासिकां रचयामि । | टीकार्थ: कवि कहते हैं। क्या कहते हैं ? यद्यपि मैं अक्षरों को नहीं जानता हूँ। और छन्द, व्याकरण, काव्य, तर्क तथा अलंकारों को भी नहीं जानता हूँ तथापि अपनी तुच्छबुद्धि के द्वारा मैंने संबोध पंचासिका की रचना की है। भावार्थ : महापुरुष 'अपने अहंकार का विसर्जन करते हैं। अतएव वे अपने गुणों को तुच्छ समझते हैं व उत्तम गुणों की प्राप्ति में तत्पर रहते हैं । कवि ने भी अलंकार अपनी अल्पज्ञता व्यक्त करते हुए लिखा है कि मैं अक्षर, तर्क, छन्द, और व्याकरणादि के ज्ञान से हीन हूँ । मात्र अल्पबुद्धि का सहयोग लेकर मैंने इस ग्रन्थ की रचना की है। इसका यह अर्थ नहीं है कि ग्रन्थकर्त्ता ज्ञानहीन हैं। अपितु इससे उनकी निरहंकारिता ही स्पष्ट होती है । इस छन्द के द्वारा ग्रन्थकर्त्ता ने न केवल अपनी अल्पक्षता ही प्रकट की है अपितु मैं पूर्वाचार्यों के अनुसार इस कृति का प्रणयन कर रहा हूँ, इसमें मेरा अपना मन्तव्य कहीं भी नहीं है यह बात भी स्पष्ट की है। 03

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