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संगोह पंचासिया
में आपने दादागुरु के करकमलों से ११-५-१९८१ को मुनिदीक्षा ग्रहण की I मुनिदीक्षा का प्रथम चातुर्मास गुरुदेव के साथ साक के अला विहार किया । आत्मसाधना आपका ध्येय था तो सारा समाज प्रबोधित हो यह आपकी इच्छा थी । इन दोनों लक्ष्यों को सिद्ध करते हुए आपने अनेक गाँवों और शहरों को अपनी चरणरज से पवित्र किया।
आपकी प्रवचनशैली बेजोड़ है। आपके प्रवचन में केवल ओज ही नहीं, अपितु साथ में आगम की धाराप्रवाहिकता भी है। विषय की सर्वांगिनता. दृष्टान्त की सहजता और शैली में नयविवक्षा का होना आपके प्रवचनों का वैशिष्ट्य है । प्रवचनशैली की तरह ही आपकी अध्यापनशैली अनुपम है प्रत्येक चातुर्मास में आप नवयुवकों को धार्मिक शिक्षण कराते हैं । फिजुलखर्चीपना आपको रुचिकर नहीं है तथा समय की पाबन्दी में आप आदर्श उदाहरण हैं ।
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आप अनेक विशेषताओं से सम्पन्न हैं और अनेक सदगुणों के समाधार भी आपकी समस्त विशेषताओं को विलोक कर दूरदृष्टिवान गुरुदेव जे १९१५ में आपको आचार्यपद प्रदान किया। पदों के प्रति निरासक्त रहते हुए आपने गुरुदेव से निवेदन किया कि हे गुरुदेव ! आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आचार्यपद नहीं अपितु अपने दो पद (चरणयुगल ) प्रदान कीजिये ताकि चारित्रपथ पर गमन करते हुए मैं कभी थकावट का अनुभव न करूं । बालयोगी, शब्दशिल्पी जैसे कितने ही पदों को आपने ग्रहण नहीं किया ।
आपकी रुचि प्राचीन शास्त्रों की सुरक्षा में है। आप जहाँ भी जाते हैं, वहाँ के हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के ग्रन्थागार का अवलोकन अवश्य करते हैं । अप्रकाशित ग्रन्थों का प्रकाशन कराना आपका ध्येय है। अबतक संघ से वेगसार, दव्वसंग्गह आदि ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है जो कि मात्र पाण्डुलिपि में ही उपलब्ध थे। मिथ्यात्वनिषेध, श्रीपुराण, व्रतफलम्, सामायिक पाठ, निमित्तशास्त्रम् आदि ग्रन्थ भी प्रकाशनाधीन हैं ।
परिचय के लेखन तक आप २ मुनि, ७ आर्यिका एक क्षुल्लक एवं एवं एक क्षुल्लिका दीक्षा दे चुके हैं। अबतक आपके सानिध्य में १ मुनि व ५ आर्यिकाओं की सल्लेखना हो चुकी है। इतने अपार वैभव के धनी होकर भी आपको अहंकार स्पर्श तक न कर पाया। आपकी चर्या सहज है और आपकी
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