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कवित्त छंद - दर्शन ज्ञान चरन त्रिगुनातम, समल रूप कहिये विहार | निचे दृष्टि एकरस चेतन, भेदरहित, अबिचल अविकार ॥ सम्यक् दशा प्रमाण भैनय, निर्मलसमल एकही वार | यों समकाल जीवकी परिनति कहें जिनंद गहे
गनधार ॥ ६८ ॥
दोहा -- एक रूप आतम दरव, ज्ञान चरन हगतीन । ' भेद भाव परिनाम सों, विवहारे सु मलीन ॥ ६६ ॥ यदपि समल विवहारसों, पर्यय शक्ति अनेक । तदपि नियत नय देखिये, शुद्ध निरंजन एक ॥ ७० ॥ एक देखिये जानिये, रमि रहिये इक ठौर | समलविमलन विचारिये, यहेसिद्धिनहि और ॥ ७१ ॥ सवैया इकतीसा - जाके पद सोहत सुलचन अनंत ज्ञान, विमल विकासवंत ज्योति लहलही है । यद्यपि त्रिविध रूप व्यवहार में तथापि, एकता न तजै यों नियत अंग कहीं है || सो है जीव कैसीहू जुगतिके सदीव ताके, ध्यान करिवे कों मेरी मनसा उमही है । जातें अविचल सिद्धिहोतु और भांति सिद्ध, नांहि नांहि नांहि यामें धोखो नांहिसही है ॥ ७२ ॥ सवैया तेईसा के अपनो पद आपु सँभारत के गुरके सुखकी सुनि वानी | भेद विज्ञान जग्यो जिनके प्रगटे सु विवेक कला रज धानी ॥ भाव अनंत भये प्रतिविंवत, जीवन मोच दशा ठहरानी । तेनर दर्पनज्यों अधिकार रहै थिर रूप सदा सुखदानी ॥ ७३ ॥
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सवैया इकतीसा - याही वर्तमान सबै भव्यनिको मिट्यो, मोह, लग्यो है अनाविको पग्यो है कर्म मलसों । उदो करें