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सो बुध कर्मदसा रहित, पाबे मोख तुरंत । भुंजे परम समाधि सुख, आगम काल अनंत ॥ ५३ ॥ छप्पय छंद - जो पूरब कृतकर्म, विरष विषफल नहिभुंजे । जोग जुगति कारज करंत ममता न प्रजुंजे ॥ राम विरोध निरोध संग;विकलप सवि छंडे । शुद्धातम अनुभौ अभ्यासि, शिव नाटक मंडे ॥ जो ज्ञान वंत इहमग चलत, पूरन व्है केवल लहे । सो परम अतींद्रिय सुख विषे, मगनरूप संतत रहे ॥ ५४ ॥
सवैया इकतीसा - निरभै निराकुल निगमवेद निरभेद, जाके परगासमें जगत माइयतु है । रूप रसगंध फास पुदगल को विलास, तासों उदबंशजाको जरा गाइयतु है ॥ विग्रहसों विरत परिग्रहसें न्यारो सदा, जामें जोग निग्रहको चिन्ह पाइतु है । सो हे ज्ञान परवान चेतन निधान ताहि, अविनाशी ईश मानी सीस नाइयतु है ॥ ५५ ॥
सवैया इकतीसा - जैसो नर भेदरूप निहचें अतीत हुतो, तैसो निरभेद अब भेदको न गहैगो । दीसे कर्म रहित सहिल सुख समाधान, पायो निज थान फिर बाहिर न वहैगो ॥ कवहु कदाचि अपनो सुभाउ त्यागि करि, राग रस राचिके न परवस्तु गहेगो । अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयो, याही भांति श्रागम अनंत काल रहेगो ॥ ५६ ॥
सवैया इकतीसा - जबहितें चेतन विभाउसों उलटि आपु, समौ पाइ अपनो सुआउ गहि लीनो है । तबहीते जो जो लेन जोग सो सो सब लीनो, जो जो त्याग जोग सो सो सब छांडि दीनाहै ॥ लेवेकौ नरही ठोर त्यागिवेकों नांही और,